ब्लॉग वार्ता : गंगा ढाबा टू नवगछिया
इंटेलेक्चुअलनुमा शोधार्थियों से लेकर राजनीतिक बहसबाजों, प्रेमीजनों और किसिम-किसिम के फाकामस्तों की शरणस्थली है जेएनयू का गंगा ढाबा- स्वाद को ठेंगा दिखाती चाय और दुसाध्य पराठों के बावजूद। ढाबाबाजों की...
इंटेलेक्चुअलनुमा शोधार्थियों से लेकर राजनीतिक बहसबाजों, प्रेमीजनों और किसिम-किसिम के फाकामस्तों की शरणस्थली है जेएनयू का गंगा ढाबा- स्वाद को ठेंगा दिखाती चाय और दुसाध्य पराठों के बावजूद। ढाबाबाजों की श्रुति-परम्परा को लिख भर देने का प्रयास है यह। बहुत दिनों बाद किसी ब्लॉग की ऐसी शानदारी एंट्री लाइन देखी है। इस देश में ढाबे तो लाखों हुए लेकिन गंगा ढाबा एक ही हुआ। जहां बिना ट्रक के भारत की शिक्षा व्यवस्था के गुणी ड्राइवर विश्राम करते हैं।
ऐसी गुणी जगह के नाम पर अब तक कोई ब्लॉग क्यों नहीं था। शायद मेरी ही नजर नहीं पड़ी होगी। इस लेख को पढ़ते ही आप क्लिक कीजिएगा http://gangadhaba.blogspot.com। ब्लॉगर ने अपने परिचय को और शानदार बना दिया है। एक किस्सा जोड़कर। एक ऑटोरिक्शा वाला जेएनयू के कैम्पस में भटक गया। रास्ता पूछा तो बताने वाले ने कहा कि भाई मैं खुद ही पिछले दस साल से जेएनयू से निकलने का रास्ता ढूंढ़ रहा हूं। मैंने भी काफी वक्त गुजारे हैं गंगा ढाबा पर। जेएनयू का विद्यार्थी तो नहीं था लेकिन इस ढाबे के कई बाहरी तीर्थयात्री यहां पंडा का वेष धारण कर घूमते हुए मिल जाते हैं। गंगा ढाबा नाम के ब्लॉग पर रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता शानदार है। मैं किसान हूं, आसमान में धान बो रहा हूं, कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता, मैं कहता हूं पगले! अगर जमीन पर भगवान जम सकता है, तो आसमान में धान भी जम सकता है।
हालांकि इस ब्लॉग पर गंगा ढाबा के बारे में कुछ नहीं है लेकिन मुद्दे वही हैं जो गंगा ढाबा पर हैं। ब्रजेश जी की फाड़ कविता पढ़ने लायक है। चादर तान सुते मुद्दों को ढेला मार जगाओ यार, कभी-कभी बउराओ यार, कभी-कभी पगलाओ यार। फाड़ू कवि ब्रजेश का परिचय तो नहीं मिला लेकिन पढ़ कर लगा कि जेएनयू के किसी हॉस्टल के ओरिजनल उपज होंगे। ब्लॉगर प्रयास करते तो गंगा ढाबा को और बेहतर बना सकते हैं।
इसी तरह भटकता हुआ एक और ब्लॉग पर पहुंच गया। नवगछिया समाचार। बिहार के नवगछिया के पत्रकार हैं राजेश कनोडिया। उन्हीं का यह ब्लॉग है। क्लिक करें http://navgachia.blogspot.com। एक छोटे से जगह की छोटी-छोटी खबरें। कॉमनवेल्थ को लेकर दिल्ली में कितना हंगामा है लेकिन किसी ने सोचा ही नहीं कि जब क्वींस बेटन नवगछिया में पहुंचा तो लोगों ने कैसे स्वागत किया होगा। लोग भी भकुआ गए होंगे। कॉमनवेल्थ और नवगछिया का क्या रिश्ता। राजेश लिखते हैं कि इसी मशाल प्रतीक का हीरो होंडा की ओर से गाजे-बाजे के साथ मंगलवार को नवगछिया में भी भरपूर स्वागत करने की योजना है। हीरो होंडा के स्थानीय प्रतिनिधि पवन सराफ ने बताया है कि बेटन रैली शहर के कई मार्गों से होते हुए गोपाल गौशाला तक जाएगी। वाह। कलमाडी के कार्यक्रम में अगर गोपाल गौशाला भी है तो कॉमनवेल्थ वाकई कॉमन है।
खैर किसी के लिखे में टांग अड़ा देने की मेरी आदत भी कम नहीं है। रिपोर्टिग जारी है। आगे खबर लिखी गई है कि इस मशाल को सेल्स मैनेजर पुरुषोत्तम कुमार लेकर नवगछिया आ रहे हैं। काश महारानी ही लेकर नवगछिया आ जातीं। आखिर जिन कस्बों को देश ने भुला दिया है वहां उन्हीं का बेटन पहुंच रहा है न। वाकई दिल्ली हमारे शहरों कस्बों से दूर हो गई है। अच्छा है कि नवगछिया के नाम पर ब्लॉग है। वर्ना किसे फिक्र है कि नवगछिया में मक्का किसानों को मुआवजा न मिलने पर पुतला फूंका गया है और आंधी से करोड़ों की केला और आम फसल को नुकसान पहुंचा है।
अब चलते हैं उत्तराखंड। यहां पहाड़ की खबर को जमीन और आसमान तक पहुंचाने के लिए पत्रकार शिवप्रसाद जोशी ने एक साइट बनाई है www.hillwani.com। राष्ट्रीय मीडिया में अब दिल्ली से दूर की खबरों की गुंजाइश कम है। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ के रायपुर और उत्तराखंड के देहरादून में राष्ट्रीय इंग्लिश हिन्दी चैनलों के शायद ही इक्का-दुक्का पूर्णकालिक संवाददाता भी होंगे।
लेकिन मेरी पहली नजर पड़ी इस साइट पर मौजूद मंगलेश डबराल की कविताओं पर। भूमंडलीकरण पर उनकी कविता को आप सुन सकते हैं। वेबसाइट पर कई खबरें लगातार स्क्रोल पर चल रही हैं। हिलवाणी डेस्क ने उत्तराखंड में विकास के दावे पर सवाल उठाये हैं। स्थानीय बोली के कई कवियों और कविताओं की जानकारी है। वर्ना पाठकों तक कुमाऊंनी जनकवि गौरीदत्त पाण्डे गोर्दा की कविता कैसे हम तक पहुंचती। छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम, हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम।
ravish@ndtv.com
लेखक का ब्लॉग है naisadak.blogspot.com