आंसू और मुस्कान
सबकी अपनी-अपनी पसंद है। कोई ऐसी किताबें पढ़ना चाहता है, ऐसी फिल्में देखना चाहता है कि हंसते-हंसते लोटपोट हो जाए, जबकि कोई दर्द भरे गीत सुनकर, दुखांत कथाएं पढ़कर, त्रासदी से भरपूर फिल्में देखकर ही...
सबकी अपनी-अपनी पसंद है। कोई ऐसी किताबें पढ़ना चाहता है, ऐसी फिल्में देखना चाहता है कि हंसते-हंसते लोटपोट हो जाए, जबकि कोई दर्द भरे गीत सुनकर, दुखांत कथाएं पढ़कर, त्रासदी से भरपूर फिल्में देखकर ही संतुष्ट हो पाता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनका मनोरंजन तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कहानी में रहस्य-रोमांच न हो। कई ऐसे भी हैं, जिन्हें लगता है कि समाज का भला आध्यात्मिक साहित्य और प्रेरक कथाओं से ही हो सकता है। कुछ लोग भुतहा हॉरर शो के भी दीवाने होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो ऐसे मनोरंजन से दूर रहना पसंद करते हैं।
ऐसी पसंद और नापसंद कई और भी हैं। इसे आमतौर पर निजी मामला माना जाता है। इसे मनोविज्ञान का मामला माना जाता है, या कुछ हद तक समाजशास्त्र का भी। लेकिन बाकी विज्ञान इससे आमतौर पर दूर ही रहा है, खासकर चिकित्सा या शरीर विज्ञान। यह जरूर है कि पिछले कुछ समय से यह सलाह दी जाने लगी है कि लोग हास्य रस की चीजें जरूर देखें या पढ़ें। वैज्ञानिकों ने पाया कि हंसने से शरीर में एंडारफिन नाम का रसायन बनता है। यह एक तरह की खुशी का एहसास कराता है, जिससे दर्द का प्रभाव कम हो जाता है। हास्य रस की यह खूबी सामने आने से दुखांत या अन्य विधाओं का दुख शायद बढ़ा होगा, लेकिन इससे उनके चाहने वाले शायद ही कम हुए हों। काफी समय से यह धारणा सी बन गई है कि हास्य दर्द को कम करता है, साथ ही यह भी मान लिया गया कि दुखांत इसे बढ़ाता होगा या कम से कम इसमें कोई भूमिका अदा नहीं करता होगा। लेकिन पिछले दिनों जब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के कुछ विशेषज्ञों ने इस धारणा का परीक्षण किया, तो नतीजे कुछ और ही मिले।
वैज्ञानिकों ने इसे समझने के लिए एक काफी दिलचस्प प्रयोग किया। उन्होंने कुछ लोगों को दो समूहों में बांटा। फिर उन लोगों की कुछ खास तरह के कष्ट सहने की क्षमता को नापा। उसके बाद उन्हें अलग-अलग तरह की फिल्में दिखाई गईं। पहले समूह को एक भावनात्मक किस्म की फिल्म दिखाई गई- स्टुअर्ट : ए लाइफ बैकवर्ड। यह एक विकलांग लड़के की कहानी थी, जिसका बचपन बहुत बुरी स्थितियों में बीता और अंत में उसने आत्महत्या कर ली। दूसरे समूह को कुछ डॉक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई गईं, जिनमें कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं था। और फिर कष्ट सहने की उनकी क्षमता को उसी तरह सेे नापा गया। इसके अलावा उनसे कुछ सवालों के जवाब भी पूछे गए। कष्ट सहने की क्षमता नापने से पता पड़ा कि जिन लोगों ने भावनात्मक फिल्म देखी, उनकी कष्ट सहने की क्षमता फिल्म देखने के बाद बढ़ गई, जबकि दूसरे समूह की कष्ट सहने की क्षमता घट गई। इन लोगों ने सवालों के जो लिखित जवाब दिए, उनसे यह भी पता पड़ा कि भावनात्मक फिल्म देखने वालों में आपसी जुड़ाव भी दूसरे समूह के लोगों के मुकाबले ज्यादा अच्छा बन गया। वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहंुचे कि दुखांत कथाएं कष्ट या दर्द सहने की क्षमता को बढ़ाती हैं। कुछ वैसे ही, जैसे प्रसिद्ध कवि अज्ञेय ने कभी कहा था- दर्द सबको मांजता है।
इस अध्ययन ने एक बात साफ कर दी कि दुखांत कथाओं पर आंसू बहाना कुछ लोग भले ही व्यर्थ मानते हों, लेकिन इनकी एक जैविक और सामाजिक भूमिका भी है। इसी तरह, अगर और अध्ययन हो, तो शायद हमें हॉरर, रहस्य-रोमांच वगैरह विधाओं की नई भूमिका भी पता पड़े। दुख-सुख, हंसी-खुशी, भय और रहस्य के भाव हमारे संसार को न सिर्फ एक विविधता देते हैं, बल्कि इनकी वजह से हर किसी को अपने ढंग से जीने की सुविधा भी मिलती है। यह भूमिका भी कोई कम नहीं है।