लोकतंत्र के प्रहरी
सुशील कोइराला के निधन के साथ नेपाल की राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण परिवार कोइराला परिवार की पहली पीढ़ी का आखिरी स्तंभ भी ढह गया। इसके बाद सुशील कोइराला के चचेरे भाई गिरिजा प्रसाद कोइराला की बेटी सुजाता...
सुशील कोइराला के निधन के साथ नेपाल की राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण परिवार कोइराला परिवार की पहली पीढ़ी का आखिरी स्तंभ भी ढह गया। इसके बाद सुशील कोइराला के चचेरे भाई गिरिजा प्रसाद कोइराला की बेटी सुजाता कोइराला अब नेपाली कांग्रेस में कोइराला परिवार का प्रतिनिधित्व करेंगी। सुशील कोइराला पहली पीढ़ी के कोइराला बंधुओं में सबसे छोटे थे, हालांकि वह बीपी और जीपी कोइराला के सगे भाई नहीं थे, उनके पिता बांधी प्रसाद कोइराला, बीपी कोइराला के पिता कृष्ण प्रसाद कोइराला के भाई थे।
ये सभी भाई बिश्वेश्वर प्रसाद कोइराला, मातृका प्रसाद कोइराला, गिरिजा प्रसाद कोइराला और सुशील कोइराला नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और नेपाल के आधुनिक इतिहास से इस परिवार का अभिन्न रिश्ता है। इनमें सबसे बड़े और कद्दावर नेता सबसे बड़े भाई बिश्वेश्वर प्रसाद कोइराला थे, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और नेपाल में लोकतंत्र स्थापित करने के लिए लगातार संघर्ष किया। उन्होंने नेपाल में उस सशस्त्र क्रांति का नेतृत्व किया, जिससे नेपाल में राणाशाही खत्म हुई और आधा-अधूरा ही सही, मगर लोकतंत्र स्थापित हुआ। कैंसर पीड़ित होने के बावजूद उन्होंने जीवन का एक बड़ा हिस्सा जेल में बिताया और वह नेपाल के सबसे सम्मानित और लोकप्रिय नेता थे।
बीपी कोइराला के भाइयों में से किसी का वह कद नहीं था, जो बीपी का था, लेकिन बीपी कोइराला के उत्तराधिकार के रूप में सुशील कोइराला एक मध्यमार्गी और सबको साथ लेने की राजनीति पर चलते रहे। सुशील कोइराला पिछले साल उस वक्त प्रधानमंत्री थे, जब नेपाल में वह विवादास्पद संविधान स्वीकार किया गया, जिसके बाद मधेसियों ने आंदोलन कर दिया और भारत-नेपाल के रिश्ते काफी खराब हो गए। अक्तूबर 2015 में सुशील कोइराला ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया और के पी ओली प्रधानमंत्री बने। पद से हटने के बाद भी सुशील कोइराला ने मधेसियों से बातचीत और समझौते के लिए सक्रिय भूमिका निभाई। ओली के मुकाबले सुशील कोइराला मृदुभाषी और लचीले स्वभाव के व्यक्ति थे, इसलिए उनका समझौते की बातचीत में विशेष महत्व था।
लगभग 75 साल तक कोइराला परिवार की यह पीढ़ी नेपाल की राजनीति में सक्रिय रही और भारत की आजादी के तुरंत बाद बीपी कोइराला के नेतृत्व में लोकतंत्र के लिए संघर्ष शुरू हुआ था, लेकिन वहां वास्तविक लोकतंत्र अभी स्थापित नहीं हुआ। इस बीच राजशाही का भी अंत हो गया और लंबी जद्दोजहद के बाद अंतिम कोइराला बंधु के प्रधानमंत्री रहते हुए एक संविधान भी स्वीकृत हो गया, लेकिन यह समावेशी नहीं था और इसमें मधेसियों के हित की अनदेखी की गई थी। अब हो सकता है कि इस परिवार की अगली पीढ़ी को वास्तविक लोकतंत्र देखने का सौभाग्य मिले, पर अब न तो नेपाली कांग्रेस का वहां वैसा असर है, और न ही कोइराला परिवार का नेपाली कांग्रेस पर एकाधिकार बचा है। खुद सुशील कोइराला शेर बहादुर देउबा से नेपाली कांग्रेस संसदीय दल के नेता का चुनाव हार गए थे।
सुशील कोइराला सन 1954 में राजनीति में आए थे, उसके बाद पार्टी और देश ने कई परिवर्तन देखे। नेपाली कांग्रेस में भी भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग जैसे दुर्गुण पैदा हुए और नई पीढ़ी के वोटर माओवादियों की ओर आकर्षित हुए। लेकिन कोइराला परिवार व नेपाली कांग्रेस हमेशा लोकतंत्र और उदार, मध्यमार्गी राजनीति के पक्षधर रहे। इन सभी मूल्यों के चलते माओवादियों को भी मध्यमार्गी राजनीति को अपनाना पड़ा। सुशील कोइराला उसी राजनीति के स्तंभ की तरह याद किए जाएंगे।