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नफरत, शिक्षा और देश

कहते हैं कि नफरत करने वाला अंत में अपना या अपनों का ही नुकसान कर बैठता है। कुछ ऐसा ही नुकसान इन दिनों अमेरिका को होता हुआ दिख रहा है। पिछले कुछ समय से अमेरिकी समाज में नफरत का बोलबाला काफी बढ़ा है।...

नफरत, शिक्षा और देश
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 27 Mar 2017 11:32 PM
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कहते हैं कि नफरत करने वाला अंत में अपना या अपनों का ही नुकसान कर बैठता है। कुछ ऐसा ही नुकसान इन दिनों अमेरिका को होता हुआ दिख रहा है। पिछले कुछ समय से अमेरिकी समाज में नफरत का बोलबाला काफी बढ़ा है। राजनीति पर भी इसकी छाप साफ-साफ दिखाई दी है। कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि जब से वहां नई सरकार बनी है, नफरत की वजह से होने वाली हिंसा की घटनाएं और अपराध बढ़ गए हैं। कई एशियाई लोगों को इसका शिकार बनना पड़ा है। कुछ समय पहले अमेरिकी शहर कैन्सास में जिस तरह भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास कुच्चीभोटला की हत्या इसी नफरत के कारण की गई, उससे भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लोगों में एक सिहरन दौड़ गई। इन सबके नतीजे अब दिखने लगे हैं। अमेरिका के विश्वविद्यालयों और प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश चाहने वाले विदेशी छात्रों की संख्या इस बार एकाएक गिर गई है। इसमें 40 प्रतिशत तक की कमी आई है। इसमें एक बड़ा कारण तो यह है कि अमेरिका ने कई मुस्लिम देशों से लोगों के प्रवेश को ही रोक दिया है। लेकिन दूसरा कारण भारत जैसे देशों के छात्रों व अभिभावकों के मन में बैठा डर भी है। पोर्टलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ ओरेगॉन के अनुसार, इस बार वहां भारत से दाखिले के लिए आने वाली अर्जियों में 37 फीसदी की कमी आई है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में इसे लेकर चिंता इसलिए है, क्योंकि उनकी पूरी अर्थव्यवस्था में विदेशी छात्रों का बड़ा योगदान होता है। मसलन, ओरेगॉन यूनिवर्सिटी को ही लें। वहां अमेरिकी छात्रों से हर सेमेस्टर की फीस आठ हजार डॉलर ली जाती है, जबकि विदेशी छात्रों को इसकी तीन गुनी फीस देनी पड़ती है। इसी तरह कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में विदेशी छात्रों को दो गुनी फीस देनी पड़ती है। इस आर्थिक निर्भरता के कारण ही वे कोशिश करते हैं कि अधिक से अधिक विदेशी छात्र उनके यहां एडमीशन लें। लेकिन यह रणनीति अब कमजोर पड़ती दिख रही है।

अमेरिका की समस्या इसलिए भी बढ़ रही है कि विदेशी छात्रों से कमाई का बाजार अब दुनिया के कई देशों में फैल रहा है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी और यहां तक कि आयरलैंड इसके नए खिलाड़ी बनकर उभरे हैं। लगातार कडे़ होते वीजा नियमों के कारण अमेरिका और ब्रिटेन जैसे वे देश अब लगातार पिछड़ते जा रहे हैं, जिनका कभी शिक्षा के बाजार में एकछत्र राज था। कुछ साल पहले ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के विरुद्ध हिंसा की कई घटनाएं सामने आई थीं, जिससे वहां जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या तेजी से घट गई थी। लेकिन पिछले एक-दो साल में ऑस्ट्रेलिया ने कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करके इसकी भरपायी कर ली है और उसका शिक्षा बाजार अब तेजी से बढ़ रहा है। इसके बाद सबसे ज्यादा फायदा मिल रहा है कनाडा को, जहां वीजा और आव्रजन नियम काफी उदार हैं, फिर वहां के विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा भी काफी अच्छी है। 

बेशक अब भारतीय छात्र अमेरिका की जगह ऑस्ट्रेलिया, कनाडा या फिर आयरलैंड जैसे देशों की ओर रुख करेंगे, लेकिन भारत के लिए यह बात किसी भी तरह से अच्छी नहीं, बल्कि शर्मनाक ही है। हम पिछले कई साल से विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाने की बात तो करते रहे हैं, लेकिन आईआईटी के अलावा हमारे पास कुछ भी ऐसा नहीं है, और हम विकसित देशों की बाट जोहते हैं। एक तरफ हम अर्थव्यवस्था के लिए मेक इन इंडिया की बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ क्या हम ऐसे लक्ष्यों को विदेशों में उच्च शिक्षा पाए लोगों के भरोसे हासिल करना चाहेंगे? मेक इन इंडिया की तर्ज पर ही हमें एजूकेट इन इंडिया की भी जरूरत है। 

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