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अपने-अपने अंबेडकर

भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर संसद में जो बहस हुई, वह इसलिए भी सुखद थी, क्योंकि इन दिनों संसद में सचमुच की बहस कम ही सुनने को मिलती है। वहां ज्यादातर शोर और हंगामे के दृश्य ही देखने में...

अपने-अपने अंबेडकर
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 27 Nov 2015 09:56 PM
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भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर संसद में जो बहस हुई, वह इसलिए भी सुखद थी, क्योंकि इन दिनों संसद में सचमुच की बहस कम ही सुनने को मिलती है। वहां ज्यादातर शोर और हंगामे के दृश्य ही देखने में आते हैं, इसलिए संसद में बहस हो पाना ही अंबेडकर जयंती की एक बड़ी उपलब्धि है। यह बहस काफी हद तक आरोप-प्रत्यारोपों में घिर गई, यह कुछ हद तक स्वाभाविक भी था। काफी वक्त से सत्ता पक्ष और विपक्ष के रिश्ते बहुत खराब होते जा रहे हैं, हालांकि सरकार ने इस शीतकालीन सत्र के पहले रिश्ते सुधारने की एक शुरुआत की है। इस पहल का नतीजा तो इस सत्र की कार्यवाही के दौरान ही पता चलेगा, लेकिन कम से कम शुरुआत होना अच्छी बात है। आरोप-प्रत्यारोपों का दूसरा बड़ा कारण यह है कि अंबेडकर मौजूदा राजनीतिक पार्टियों या उनके पूर्ववर्ती रूपों में से किसी के नेता नहीं थे। कांग्रेस से उनके रिश्ते अमूमन विरोध वाले, लेकिन कामकाजी थे, इसलिए आजादी के बाद वह संविधान का मसौदा बनाने वाली समिति के अध्यक्ष और देश के पहले कानून मंत्री बने। बाद में मतभेदों की वजह से उन्होंने इस्तीफा भी दे दिया था। भारतीय जनता पार्टी को आजादी के पहले सक्रिय तमाम हिंदुत्ववादी संगठनों का उत्तराधिकारी माना जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ तो उसका रिश्ता बना ही हुआ है। इन हिंदुत्ववादी संगठनों पर उस दौर में ब्राह्मणवादी और शुद्धतावादी धार्मिक विचार हावी थे और मोटे तौर पर इन संगठनों में वर्ण-व्यवस्था के समर्थक लोग थे। इन लोगों की अंबेडकर से कभी नहीं पटी।

अगर पुराने हिंदुत्वादी संगठनों का अंबेडकर से विरोध था, तो इसका अर्थ यह नहीं कि अब भाजपा को अंबेडकर की विरासत स्वीकार करने का हक नहीं है। पिछले कुछ वक्त से भाजपा ने अंबेडकर को अपना बनाने और प्रचारित करने की मुहिम चलाई है। दूसरी ओर, कांग्रेस का दावा यह है कि अंबेडकर उसके ज्यादा करीब थे और कांग्रेस ने उनके विचारों के अनुरूप काम करने की ज्यादा कोशिश की है। अन्य पार्टियां भी अंबेडकर की आभा में अपना चेहरा चमकाने की कोशिश कर रही हैं। इस विवाद के स्वर संसद की बहस में भी सुनने को मिले। इन दिनों सबसे उग्र मुद्दा सांप्रदायिक असहिष्णुता का है। पार्टियां अंबेडकर के बहाने इस मुद्दे पर एक-दूसरे पर निशाना साध रही हैं। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 'सेक्युलर' शब्द के कथित दुरुपयोग का मुद्दा उठाया, तो सोनिया गांधी ने कहा कि सरकार संविधान निर्माताओं की भावनाओं के खिलाफ काम कर रही है।
अंबेडकर आधुनिक भारत के सबसे ज्यादा विचारवान और विद्वान राजनेताओं में से हैं। उस दौर के ऐसे अन्य नेताओं की तरह उन्होंने कई विषयों पर लिखा है। उन पर गंभीर शोध और विचार उतना नहीं हुआ, जितना होना चाहिए। अंबेडकर को एक दलित महानायक मानकर उनकी पूजा करने में सबकी दिलचस्पी है, क्योंकि दलित वोटों की जरूरत सारी पार्टियां महसूस करती हैं। संसद की बहस में भी अंबेडकर के जरिए दलित वोटों पर कब्जा जमाने की इच्छा ही दिखाई देती है, उनकी वास्तविक विरासत को समझने और उसे आगे ले जाने का संकल्प कहीं नहीं दिखाई देता। इसलिए अंबेडकर के विचारों का इस्तेमाल भी उसी हद तक किया जाता है। अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि हर किस्म के जातिवाद से देश को मुक्त करने की कोशिशों के अलावा तब होगी, जब उनके कहे और लिखे का गंभीरता से अध्ययन और विश्लेषण किया जाएगा, न कि सुविधानुसार महिमामंडन। अंधों के हाथी की तरह अपने-अपने मुताबिक अंबेडकर को चुनना इस विराट व्यक्तित्व के प्रति न्याय नहीं है।

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