भविष्य का सवाल
पेरिस में हो रहे जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दुनिया भर के नेताओं के जो भाषण हुए हैं, वे बताते हैं कि दुनिया को अब यह एहसास हो चला है कि पर्यावरण को बचाने के नजरिये से हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है।...
पेरिस में हो रहे जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दुनिया भर के नेताओं के जो भाषण हुए हैं, वे बताते हैं कि दुनिया को अब यह एहसास हो चला है कि पर्यावरण को बचाने के नजरिये से हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है। सारे देशों के नेताओं ने हवा में ग्रीनहाउस गैसों की मौजूदगी और ग्लोबल वार्मिंग से बचने की जरूरत को गंभीरता से लिया है, यह तो पता चलता है, लेकिन तमाम देशों का रवैया बहुत बदलेगा, इसमें शक है। जानकार बता रहे हैं कि दुनिया जितना कार्बन उत्सर्जन बर्दाश्त कर सकती है, उसका दो-तिहाई वह अब तक कर चुकी है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा विकसित देशों और चीन का है। अब जो विवाद है, वह बचे हुए एक तिहाई में हिस्सेदारी का है। अब भी विकसित देश इस एक तिहाई में बड़ा हिस्सा चाहते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी जीवन शैली बनाए रखनी है। वे विकासशील देशों पर दबाव डाल रहे हैं कि भविष्य में वे ज्यादा त्याग करें, क्योंकि विकास करने की प्रक्रिया में वे ऐसी जगह आ गए हैं, जहां वे ज्यादा ऊर्जा की खपत कर रहे हैं। यहीं भारत विकसित देशों के लिए खलनायक बना हुआ है, क्योंकि भारत का कहना है कि हमें अपनी जनता को गरीबी से निकालने के लिए ज्यादा ऊर्जा खपत की जरूरत है, इसलिए हमें छूट मिलनी चाहिए। भारत का कार्बन उत्सर्जन तेजी से बढ़ा है, पर आबादी के नजरिये से देखें, तो प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत हमारे देश में बहुत कम है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पेरिस सम्मेलन में भारत का यही नजरिया व्यक्त किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन में सबसे बड़ा योगदान है, इसलिए कटौती भी उन्हें ही सबसे ज्यादा करनी चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग में हमारा योगदान बहुत कम है। यह समस्या हमने पैदा नहीं की है, लेकिन हम समाधान का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं। भारत का यह भी कहना है कि विकसित देशों का मुद्दा अपनी आरामदेह जिंदगी बनाए रखने का है, जबकि भारत के लिए यह करोड़ों लोगों को गरीबी से निकालने का सवाल है। विकसित देशों को एक बड़ा फायदा यह भी है कि उनके पास इतने आर्थिक और तकनीकी साधन हैं कि वे नई, कम ऊर्जा खपत करने वाली और कम प्रदूषण फैलाने वाली तकनीक इस्तेमाल कर सकते हैं। भारत का कहना यह भी है कि विकसित देशों को इस नजरिये से विकासशील देशों को आर्थिक व तकनीकी मदद करनी चाहिए। समस्या यह है कि ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए फिक्रमंद सभी देश हैं, लेकिन उसके लिए पैसा खर्च करने और तकनीक देने के मामले में विकसित देश हिचक रहे हैं।
यह अब बहुत साफ है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए एकमात्र तरीका विज्ञान और तकनीक है, क्योंकि यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि देश अपनी जीवन शैली या विकास के मॉडल में कोई बड़ा परिवर्तन कर पाएंगे। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी कम ऊर्जा की खपत करने वाली टेक्नोलॉजी और वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर शोध में ज्यादा पैसा और मेहनत लगाने की जरूरत है। जब तक फॉसिल ईंधन के ठोस विकल्प उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक हवा में ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि को रोकना तकरीबन नामुमकिन है। इन दिनों जिस विकल्प में सबसे ज्यादा उम्मीद नजर आ रही है, वह सौर ऊर्जा है। भारत सौर ऊर्जा के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने देशों के सौर गठबंधन का भी विचार रखा था, जिसकी शुरुआत पेरिस में हुई। भूमध्यरेखीय जिन देशों में अमूमन सूर्य की रोशनी ज्यादा होती है, उनमें सौर ऊर्जा के साझा उत्पादन की योजना है। अगर विकसित देश ऐसी परियोजनाओं में दिलचस्पी लें और उन्हें प्रोत्साहित करें, तो कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य पूरे किए जा सकते हैं।