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संथारा और कानून

पिछले दिनों जिन अदालती फैसलों की बहुत चर्चा हुई, उनमें एक राजस्थान हाईकोर्ट का वह फैसला है, जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि जैनियों की संथारा की परंपरा कानून के नजरिये से आत्महत्या को बढ़ावा देती है,...

संथारा और कानून
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 01 Sep 2015 01:40 PM
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पिछले दिनों जिन अदालती फैसलों की बहुत चर्चा हुई, उनमें एक राजस्थान हाईकोर्ट का वह फैसला है, जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि जैनियों की संथारा की परंपरा कानून के नजरिये से आत्महत्या को बढ़ावा देती है, इसलिए उस पर पाबंदी लगनी चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि संथारा को जैन धर्म की बुनियादी मान्यताओं में नहीं गिना जा सकता, इसलिए उस पर पाबंदी धर्म पालन के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन नहीं है।

अब सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले पर रोक लगा दी है। इस फैसले से जैन समाज को तो राहत मिलेगी ही, जो हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ आंदोलन कर रहा था। जैन मतावलंबियों के अलावा काफी विद्वानों ने हाईकोर्ट के फैसले की आलोचना की है और इनमें कानून के जानकारों के अलावा उदार और धर्मनिरपेक्ष विचारों वाले सम्माननीय विद्वान भी हैं। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले ने एक गंभीर बहस छेड़ दी है, जो कानून, धर्म, संस्कृति जैसे तमाम विषयों को समेटे हुए है।

यह बहस इसलिए स्वागतयोग्य है, क्योंकि संथारा का सही या गलत होना सिर्फ कानूनी मसला नहीं है, इसके कई पहलू हैं। जो याचिका राजस्थान हाईकोर्ट में दाखिल हुई थी, उसमें यह उल्लेख था कि समाज में सम्मान पाने के लिए या अन्य वजहों से परिवार के लोग अपने परिवार के बूढ़े या गंभीर रूप से बीमार सदस्यों पर संथारा करने के लिए दबाव डालते हैं। जहां-जहां ऐसा होता है, वहां इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने की जरूरत है, और यह काम जैन समाज को करना चाहिए। जानकारों का कहना है कि संथारा की आत्महत्या से बराबरी करना ठीक नहीं है। हर समाज में अपने आप को किसी बड़े उद्देश्य के लिए उत्सर्ग करने की परंपरा और भावना लगातार बनी रही है और हर समाज का अपना एक सांस्कृतिक संदर्भ होता है।

सांस्कृतिक संदर्भ और उसकी जटिलता को भुलाकर ऐसी परंपराओं को आत्महत्या कहना सरलीकरण है। आत्महत्या के बारे में भारतीय कानून का नजरिया 19वीं सदी की यहूदी-ईसाई नैतिकता से बना है और वह आधुनिक समाज की जरूरतों के लिए भी अपर्याप्त है। कई मनोवैज्ञानिक यह कहते आ रहे हैं कि आत्महत्या को अपराध की क्षेणी से हटाना इसलिए जरूरी है, ताकि आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को सही डॉक्टरी सलाह और इलाज मिल सके। आत्महत्या कानूनी नहीं, बल्कि मानसिक समस्या है और कानून का डर आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को इलाज पाने से रोकता है। बढ़ते मनोरोगों से निपटने के लिए यह जरूरी है कि इनसे जुड़ी गलत धारणाएं खत्म हों, ताकि मनोरोगी डॉक्टर के पास जाने में हिचकिचाएं नहीं।

संथारा या स्वेच्छा से अन्न-जल त्यागकर प्राण त्यागने के उदाहरण सिर्फ जैन धर्मावलंबियों में नहीं मिलते। अन्य धर्मो को मानने वाले लोगों में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। बौद्ध धर्म के विद्वान धर्मानंद कोसांबी व आचार्य विनोबा भावे ने भी इसी तरह अपने प्राण त्याग थे। यह सही है कि ऐसे मामलों में सरलीकृत कानूनी नजरिया नहीं अपनाया जा सकता, लेकिन इस बात को रोकने के भी उपाय होने चाहिए कि ऐसी प्रथाओं का दुरुपयोग न हो और सचमुच आत्महत्या के लिए उकसाने की घटनाएं धार्मिक परंपरा की आड़ में न हो। सुप्रीम कोर्ट ने जैन समाज को एक अवसर दिया है कि वह अपनी परंपरा की पवित्रता बनाए रखे। सभी धर्मों में यह सख्त जरूरत है कि उन्हें उदार और प्रगतिशील बनाया जाए, ताकि उनकी प्रथाओं का आर्थिक या सामाजिक कारणों से दुरुपयोग नहीं हो, और यह काम धार्मिक नेता और समाज के लोग ही कर सकते हैं।

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