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हिंसा कभी जायज नहीं हो सकती

वह पाकिस्तान के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की बेटी हैं, पर उनकी दिलचस्पी साहित्य में है। पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पोती और बेनजीर भुट्टो की भतीजी फातिमा भुट्टो को दुनिया एक कवि, लेखक...

हिंसा कभी जायज नहीं हो सकती
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 12 Apr 2014 09:45 PM
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वह पाकिस्तान के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की बेटी हैं, पर उनकी दिलचस्पी साहित्य में है। पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पोती और बेनजीर भुट्टो की भतीजी फातिमा भुट्टो को दुनिया एक कवि, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जानती है। वर्ष 2005 में फातिमा भुट्टो अपने पहले काव्य संकलन विस्पर्स ऑफ द डेसर्ट के जरिये सुर्खियों में आईं। पेश हैं उनके एक भाषण के अंश:

शब्द और बदलाव
अभी यहां किसी ने सवाल किया कि क्या शब्दों के जरिये दुनिया को बदला जा सकता है? मेरा जवाब है, नहीं। हम कविता, कहानी या किताबों के जरिये दुनिया को नहीं बदल सकते। दरअसल, मुझे इस विचार में बड़ी खामी नजर आती है। साथ ही इस दावे में घमंड की बू भी आती है। मेरा मानना है कि चंद लोग या फिर चंद फैसले दुनिया को नहीं बदल सकते। इसकी वजह यह है कि हम सब एक-दूसरे से जुड़े हैं। या यूं कहें कि पूरी दुनिया किसी न किसी तरह आपस में जुड़ी है। हमारा एक फैसला तमाम लोगों को प्रभावित करता है। जब आप कहते हैं कि शब्दों के जरिये दुनिया को बदला जा सकता है, तो मेरे मन में एक बड़ा सवाल उठता है। सवाल यह है कि यह कौन तय करेगा कि किन शब्दों के जरिये दुनिया में शांति आएगी और किन शब्दों के जरिये दुनिया में तबाही मचेगी? यहां मैं आपको बोस्निया नरसंहार का उदाहरण देना चाहूंगी।

संयुक्त राष्ट्र मत बनो
आपने बोस्निया नरसंहार के आरोपी शासक रोडोवॉन केरेडिक के बारे में सुना होगा। कहते हैं कि उस नरसंहार में हजारों लोग मारे गए थे। बोस्निया ने इस नरसंहार के दौरान मानवता को तार-तार होते हुए देखा। यकीनन इसके बारे में आपको पता होगा। लेकिन क्या आपको पता है कि इस नरसंहार को अंजाम देने वाला शासक रोडोवॉन कविता लिखा करता था? उसे कविता लिखने का बहुत शौक था। मैं आपको उसकी कविताएं पढ़ने या सुनने की सलाह हरगिज नहीं दूंगी। रोडोवॉन ने कविता की छह किताबें लिखी हैं। उसने सैकड़ों कॉलम भी लिखे। ये सामग्रियां इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। मैं नहीं चाहती कि आप उन्हें पढ़ें। रोडोवॉन को लगता था कि उसकी कविताएं और लेख दुनिया को बचा सकते हैं। उसने कहा था कि वह दुनिया को बचाने के लिए लिखता है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि प्लीज! दुनिया को बचाने के लिए कुछ मत लिखो। अगर लिखना है, तो लोगों के बीच दूरी मिटाने के लिए लिखो, शांति के लिए लिखो या फिर समाज में सद्भावना बढ़ाने के लिए लिखो। मैं आपसे कहना चाहती हूं कि प्लीज, संयुक्त राष्ट्र बनने की कोशिश मत करो। संयुक्त राष्ट्र को लगता है कि वह दुनिया को बचाने का काम कर रहा है, पर वह युद्ध की अनुमति देता है और कमजोर के मुकाबले शक्तिशाली ताकतों को बढ़ावा देता है। इस तरह से दुनिया को नहीं बचाया सकता।

मलाला का मामला
कल शाम मैं यहां कुछ लोगों से मिली। हम दुनिया के तमाम मसलों पर बात कर रहे थे। किसी ने पाकिस्तानी लड़की मलाला यूसुफजई का जिक्र किया। सबने कहा कि हमें इस नाम को नहीं भूलना चाहिए। आप जानते हैं कि तालिबान ने इस लड़की को मारने की कोशिश की, क्योंकि वह अपने देश में लड़कियों को शिक्षा देने की वकालत कर रही थी। मैं इस बारे में विस्तार से बात करना चाहती हूं। मैं आपको साल 2007 का किस्सा बताना चाहती हूं। उस समय तालिबान ने स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया था। वे लोगों पर अपने फरमान थोपने लगे थे। उन्होंने पोलियो उन्मूलन अभियान बंद करवा दिया, इससे जुड़ी टीमों को घाटी से बाहर निकाल दिया। उन्होंने स्कूल जला दिए, केबल टीवी नेटवर्क खत्म कर दिया। रोडियो प्रसारण पर भी रोक लगा दी। पढ़ाई, इलाज, मनोरंजन और समाचार, ये सब कुछ तालिबान को गैर-इस्लामिक लगता है। और जब वे इस तरह की मनमानी कर रहे थे, तब हमारी हुकूमत चुपचाप देख रही थी। जाहिर है, तालिबान ने ये हरकतें अचानक नहीं की थीं। जिन पर उन्हें रोकने की जिम्मेदारी थी, वे खामोश थे।

सरकार की खामोशी
पाकिस्तानी हुकूमत ने ध्वस्त स्कूलों को दोबारा बनवाने की कोशिश नहीं की, उसने पोलियो अभियान से जुड़ी टीमों को वापस नहीं बुलाया, न्यूज ब्रॉडकास्टरों की मदद नहीं की। फिर दो साल बाद, यानी 2009 में तालिबान ने स्वात घाटी में शरिया कानून लागू करने की मांग की। पाकिस्तान हुकूमत ने उनकी मांग मान ली। नेशनल असेंबली से इस बाबत एक बिल पारित किया गया और हमारे राष्ट्रपति ने उस पर मुहर लगा दी। हैरान करने वाली बात यह थी कि सरकार ने उस कानून को ‘ऑर्डर ऑफ जस्टिस’ का नाम दिया। उससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह थी कि कुछ महीने बाद उसी हुकूमत का मन बदल गया और वह तालिबान के खिलाफ हो गई। उसी दौरान कक्षा सात में पढ़ने वाली 11 साल की एक लड़की बीबीसी में कॉलम लिखने लगी। यह लड़की  मलाला थी, जो अपने लेखों के जरिये तालिबान की हरकतों को दुनिया के सामने पेश कर रही थी। मलाला ने अपने लेखों में तालिबान के खौफ, आसमान में मंडराते फौजी विमानों के दृश्यों और मासूम बच्चियों के दर्द को बखूबी बयां किया।

तालिबान और ड्रोन हमले
तालिबान नन्ही बच्ची मलाला से नाराज हो गए। उन्होंने उस पर कातिलाना हमला कर दिया। पूरी दुनिया में हंगामा मच गया। इसके एक हफ्ते बाद ही ड्रोन हमले में 16 मासूम पाकिस्तानी नागरिक मारे गए। हाल में अफगानिस्तान में नाटो के हवाई हमले में तीन बच्चे मारे गए। ये सभी हिंसा के उदाहरण हैं। मासूमों पर हमला करना गलत है। चाहे हमला मलाला पर हो या फिर बेगुनाह पाकिस्तानी नागरिकों या अफगान बच्चों पर। ये सारे निर्दोष लोग हिंसा के शिकार हुए। जब आप हिंसा की अनुमति देते हैं, तो फिर यह तय करना मुश्किल होता है कि इसका शिकार कौन बनेगा। हिंसा किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं की जा सकती, फिर हिंसा करने वाला चाहे तालिबान हो या फिर कोई और ताकत।
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी

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