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मुंबई का भाई बनना चाहता था

उन दिनों मेरा पूरा दिन मौज-मस्ती में बीतता था। तब मैं केवल 14 साल का था। हम नागपुर की एक झोपड़पट्टी में रहते थे। मेरे माता-पिता मेहनत मजदूरी करके घर चलाते थे और मैं मोहल्ले के बच्चों के संग इधर-उधर...

मुंबई का भाई बनना चाहता था
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 11 Oct 2014 08:41 PM
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उन दिनों मेरा पूरा दिन मौज-मस्ती में बीतता था। तब मैं केवल 14 साल का था। हम नागपुर की एक झोपड़पट्टी में रहते थे। मेरे माता-पिता मेहनत मजदूरी करके घर चलाते थे और मैं मोहल्ले के बच्चों के संग इधर-उधर घूमता-फिरता रहता था। हमारी बस्ती में बच्चों के स्कूल जाने का रिवाज नहीं था। वे या तो अपने माता-पिता के संग मजदूरी करते थे या फिर मेरी तरह आवारागर्दी। मेरी मंडली के ज्यादातर बच्चे नशे के आदी हो चुके थे। दूसरों को डराने और उन पर रौब झाड़ने में हमें खूब मजा आता था। हम मुंबइया फिल्में देखा करते थे। फिल्मी परदे पर धुंआ उड़ाते डॉन को देखना हमें बहुत अच्छा लगता था। बस्ती के बाहर एक कॉलेज था। कॉलेज के सामने सड़क के पार हमारा अड्डा जमने लगा। हम सभी दोस्त वहां रोज ही जमा होते थे। हमारी आदतें खराब हो चुकी थीं। हम दूसरों को डरा- धमकाकर पैसा वसूला करते थे और फिर उस पैसे से नशा करते थे। मेरे मन में भाई बनने की ख्वाहिश अब तेजी पकड़ रही थी। इस बीच पुलिस थाने में हमारे खिलाफ कई छोटे-मोटे मामले दर्ज हो चुके थे। हालांकि तब तक हम एक बार भी जेल नहीं गए थे।

एक दिन हम अपने अड्डे पर गपशप कर रहे थे कि कॉलेज से एक आदमी आया। उसने कहा- आप लोगों को सर बुला रहे हैं। हमने चौंकते हुए पूछा- सर, कौन सर? उसने कहा- हमारे सर कॉलेज में बच्चों को खेल सिखाते हैं, वह आपको बुला रहे हैं। हम सर के पास पहुंचे। उनका नाम था प्रोफेसर विजय वारसे। उन्होंने हमें देखते ही पूछा- तुम लोग फुटबॉल खेलेगो? हमें कुछ अजीब लगा। मेरे एक साथी ने धीरे से कहा- क्या पागल हो गया है प्रोफेसर? इसे पता नहीं कि अपुन लोग कौन हैं? दरअसल, उस समय हम लोग अपने आपको बहुत बड़ा भाई समझने लगे थे। हमें यह गलतफहमी हो गई थी कि हम बहुत खतरनाक लोग हैं और आसपास के लोग हमसे बहुत खौफ खाते हैं।
खैर, हमें असमंजस में देखकर प्रोफेसर ने हमें फुटबॉल देते हुए पूछा- क्या तुम लोग गेंद खेलोगे? हमने थोड़ा भाव खाते हुए कहा- हां खेलेंगे, लेकिन इसके लिए कितने पैसे मिलेंगे? पांच रुपये रोजाना, प्रोफेसर ने जवाब दिया।

हमारे चेहरे पर मुस्कान थी। मेरे एक दोस्त ने फुसफुसाते हुए कहा- लगता है, इस प्रोफेसर के पास बहुत पैसा है। मैंने कहा- चल हमें क्या है, हमें तो पैसे से मतलब है। हम कुल पांच साथी थे। हमने प्रोफेसर के हाथ से फुटबॉल ले ली। हम मैदान में खेलने लगे। करीब डेढ़ घंटा खेलने के बाद हम प्रोफेसर के पास पहुंचे। हमने बिना इंतजार किए उनसे कहा- हमारे पैसे? उन्होंने हम सभी साथियों को पांच-पांच रुपये थमा दिए। हम पैसे लेकर चल पड़े। प्रोफेसर ने हमें टोकते हुए कहा- कल फिर आना। उस दिन हमें बहुत अच्छा लगा। पहली बार हमने किसी को बिना डराए-धमकाए, बिना कोई मारपीट किए कुछ पैसे कमाए थे। काफी अच्छा एहसास था वह। अगले दिन हम तय समय पर खेल के मैदान में पहुंच गए। हमें फुटबॉल खेलने में मजा आने लगा। हम रोज खेलते और हमें रोज पांच रुपये मिलते। इस तरह करीब 15 दिन बीत गए। लेकिन 15 दिनों के बाद जब हम कॉलेज पहुंचे, तो प्रोफेसर  साहब ने मना कर दिया। उन्होंने कहा- आज नहीं खेलना है। हमने पूछा- क्यों? उनका जवाब था, आज मेरे पास पैसे नहीं है। हम लौटने लगे, तभी मेरे एक साथी ने कहा- सर पैसे नहीं हैं, तो कम से कम हमें फुटबॉल दे दीजिए, हमारा गेंद खेलने का मन है। उन्होंने कहा- ठीक है, गेंद ले लो, मगर इसे यहीं वापस कर जाना। हम पांच दिन बिना पैसे के खेले, पर इसके बाद प्रोफेसर ने गेंद देने से भी मना कर दिया।

हम वापस अपने अड्डे पर व्यस्त हो गए। एक दिन मैं एक संपत्ति खाली कराने के काम से जा रहा था कि रास्ते में विरोधी गुट के लोग मेरे सामने आ गए। वे मुझे बुरी तरह पीटने लगे। उन्होंने डंडे और पत्थर से मुझे बुरी तरह घायल कर दिया। वे मेरा पीछा कर रहे थे और मैं भाग रहा था। तभी मैं एक चलती बस में बैठ गया। मेरे सामने मुश्किल यह थी कि न तो मैं उन गुंडों के सामने जा सकता था और न ही पुलिस के पास। पुलिस थाने में मेरे खिलाफ पहले से कई केस दर्ज थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि कहां जाकर छिपूं। मन में एक ख्याल आया कि क्यों न कब्रिस्तान में छिप जाऊं? मुझे यकीन था कि वहां न तो गुंडे पहुंचेंगे और न पुलिस आएगी। मैं कई दिनों तक क्रबिस्तान में छिपा रहा। जब भूख लगती थी, तब पास के एक मंदिर के बाहर भिखारियों के साथ बैठकर भक्तों द्वारा बांटा जा रहा खाना खा लेता था। इस बीच मुझे जानने वाले एक व्यक्ति की नजर मुझ पर पड़ी। उसने मुझे एक वकील से मिलवाया।

वकील ने कहा कि तुम्हें जेल जाना होगा। मैंने कहा- आप कैसी मदद कर रहे हैं मेरी, मैं आज तक जेल नहीं गया और आप मुझे जेल भेजने की बात कर रहे हैं? वकील का जवाब था- अखिलेश यह रास्ता कठिन जरूर है, पर यही सही रास्ता है। जमानत के बाद तुम एक अच्छी जिंदगी जी सकोगे। मैं जेल गया और कुछ दिनों बाद मुझे जमानत मिल गई। अब मैं समझ गया था कि भाई बनने का रास्ता बहुत कठिन है।

एक दिन मैंने दो बच्चों को साइकिल पर जाते देखा। उनमें से एक के हाथ में फुटबॉल था। मैं उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। वे सामने के मैदान में फुटबॉल खेलने लगे। मैं उन्हें ध्यान से देख रहा था, तभी प्रोफेसर वारसे आ गए। उन्होंने पूछा- क्या हाल है? मैंने कहा- सर, कुछ ठीक नहीं है। उन्होंने कहा- जब मन करे, तुम यहां फुटबॉल खेलने चले आया करो। मैं रोज वहां जाने लगा। कुछ ही दिनों में मैं बहुत अच्छा खेलने लगा। प्रोफेसर मेरे प्रदर्शन से काफी खुश थे। उन्होंने मुझे जिला स्तर की फुटबॉल टीम में शामिल कर लिया। दरअसल, यह गरीब और बेसहारा बच्चों को खेल के प्रति आकर्षित करने की योजना थी। इसके पीछे प्रोफसर वारसे का ही दिमाग था। फुटबॉल में दिलचस्पी बढ़ने लगी। जिले के बाद मैं राज्य और फिर राष्ट्रीय टीम में शामिल हो गया। 2010 के ब्राजील होमलेस फुटबॉल वर्ल्ड कप में मैं भारतीय टीम का कैप्टन था। आज मैं बस्ती के तमाम बेसहारा बच्चों को नि:शुल्क फुटबॉल की ट्रेनिंग देता हूं, ताकि उनके मन में कभी ‘भाई’ बनने की ख्वाहिश पैदा न हो। 
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी

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