आधार और औचित्य
जब भी कोई दुर्घटना घटती है, तो तुरंत ही वोट बैंक की राजनीति के आधार पर मुआवजा घोषित हो जाता है। यदि नहीं होता, तो विपक्षी दल इसकी मांग करते हैं। लेकिन इसका आधार क्या है? वैसे तो जान की कोई कीमत नहीं...
जब भी कोई दुर्घटना घटती है, तो तुरंत ही वोट बैंक की राजनीति के आधार पर मुआवजा घोषित हो जाता है। यदि नहीं होता, तो विपक्षी दल इसकी मांग करते हैं। लेकिन इसका आधार क्या है? वैसे तो जान की कोई कीमत नहीं होती, फिर भी मुआवजा दिया जाता है; कभी दो लाख, कभी पांच लाख, कभी दस या बीस लाख और अब 45 लाख। यह जनता का धन है, इसको सोच-समझकर व्यय किया जाए। मुआवजे का आधार मृतक की आय और नुकसान से हो, लेकिन मृतक के आश्रितों को एक साथ पूरी राशि न देकर जीवनपर्यंत एक निश्चित राशि का भुगतान हो, जिसमें समय-समय पर बढ़ोतरी की जाए। एक साथ राशि मिलने से उसका सदुपयोग नहीं होता। मुआवजा केवल परिजनों का मुंह बंद करने के लिए न हो। दूसरी बात, घायल को कम मुआवजा क्यों? उसको तो कभी-कभी जीवन भर इलाज कराना पड़ता है। इसलिए नकद न देकर, उसके इलाज का पूरा भुगतान हो।
यश वीर आर्य
aryayv@gmail.com
किसानों का कष्ट
पिछले दिनों किसानों पर योगेंद्र यादव और अब एस श्रीनिवासन के लेख से साफ है कि किसान की हालत दयनीय और चिंताजनक है। कृषि-प्रधान और गांवों से बने देश की यह हालत है, तो कैसे कहा जा सकता है कि संपूर्ण विकास हो रहा है? किसानों की आत्महत्या दुर्भाग्य से जारी है, क्योंकि उनके लिए कुछ ठोस हुआ ही नहीं है। ढेर सारे सुधार करने होंगे। फसलों के उत्पादन में संतुलन भी सुधार का एक बड़ा आधार हो सकता है। किसान व खेतिहर मजदूर सर्वाधिक उपेक्षित, किंतु मेहनतकश तबके हैं। कह सकते हैं कि मजदूर और किसान में मजदूर की हालत तुलनात्मक रूप से बेहतर है, क्योंकि उन्हें अपनी मजदूरी मिल जाती है, लेकिन बेचारे किसानों को तो वह भी नसीब नहीं। वे पूरी तरह प्रकृति के सहारे हैं। आंधी, तूफान, सूखा, बाढ़ और बीमारियां उन्हें घेरे रहती हैं।
वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली
vedmamurpur@gmail.com
वापस आए काला धन
काले धन से संबंधित चेतावनी की अपर्याप्त सफलता से नाराज वित्त मंत्री ने अब विदेश से काले धन का ब्योरा मांगा है। आश्चर्य यह है कि जुलाई में काले धन की वापसी की मुहिम शुरू हुई थी। तीन महीने बाद 30 सितंबर तक भी वह असफल दिखी। सच पूछें, तो काले धन को 'ब्लैक बॉक्स' की तरह आजकल में नहीं खोजा जा सकता। ऐसे धन को हासिल कर छिपाने वाले बड़े शातिर और खतरनाक इरादे वाले होते हैं। वे उस राशि को जल्द से जल्द 'रियल एस्टेट', 'खनन' या दूसरे उद्योग-धंधों में लगा देते हैं, जिससे उसे पकड़ पाना बहुत कठिन हो जाता है। काले धन को छिपाकर रखने वालों में जब तक देश और देश के नागरिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास नहीं होगा, तब तक इस मुहिम के शत-प्रतिशत सफल होने की कोई गुंजाइश नहीं है।
रमेश सिन्हा, गुड़गांव
बिहार मांगे विकास
लुभावने वादों की लिस्ट तैयार करके राजनीतिक पार्टियां बिहार के चुनावी दंगल में कूद चुकी हैं। पर कोई बिहार की जनता से तो पूछे कि वह क्या चाहती है? आज, जब बिहार अपने वर्तमान की तुलना इतिहास से करता है, तो कुछ भ्रष्ट नेताओं द्वारा खुद को ठगा हुआ पाता है। सम्राट अशोक के शौर्य का साक्षी, चाणक्य व आर्यभट्ट की बौद्धिकता, गौतम बुद्ध के ज्ञान की कार्यशाला और न जाने कितनी ऐतिहासिक समृद्धियों को अपने दामन में समेटे बिहार का वर्तमान आज किन कारणों से विकास की परिधि से कोसों दूर है? यह एक गंभीर प्रश्न है। बिहार कभी अपनी भौगोलिक संरचना और जीवन-निर्वहन के लिए आवश्यक संसाधनों की आसानी से उपलब्धता के कारण विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र था। लोग विश्व के अलग-अलग कोनों से आकर भी बिहार में बसे, लेकिन आज आलम यह है कि नौकरी, व्यवसाय और शिक्षा के मद्देनजर सबसे ज्यादा पलायन बिहार से होता है।
शुभम श्रीवास्तव, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश