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अच्छे दिनों का अर्थ

लोकसभा चुनाव-2014 से पहले ही ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाक्य चलन में आ गया था, क्योंकि यह भारतीय जनता पार्टी का स्लोगन था। चुनाव के नतीजे के बाद तो यह स्लोगन छा ही गया। लेकिन अच्छे दिन...

अच्छे दिनों का अर्थ
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 21 Sep 2014 07:33 PM
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लोकसभा चुनाव-2014 से पहले ही ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाक्य चलन में आ गया था, क्योंकि यह भारतीय जनता पार्टी का स्लोगन था। चुनाव के नतीजे के बाद तो यह स्लोगन छा ही गया। लेकिन अच्छे दिन किसके आने वाले हैं, यह साफ न हो सका। देखा जाए, तो अच्छे दिन तो हमेशा रहते हैं, लेकिन सबके लिए नहीं। शासन-व्यवस्था जैसी भी हो, चाहे वह लोकतंत्र हो या राजशाही या साम्यवादी, उसमें एक कॉमन गुण पाया जाता है। वह गुण है कि ‘जो सत्ता में होते हैं, या जो सत्ताधारियों के निकट रहते हैं, वे अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे रहते हैं और मनमाने लाभ उठाते रहते हैं।’ ऐसे में, सत्ता के करीबियों के लिए अच्छे दिन तो होते हैं, किंतु बाकी के लिए या तो सामान्य दिन या बुरे दिन। सवाल उठता है कि अब जिनके हाथ से सत्ता निकल गई हो और जो उन लोगों के निकट थे, उनके अच्छे दिन कैसे आ सकते हैं?
सोमदत्त शर्मा, सराय रोहिल्ला, दिल्ली-05

जान से खिलवाड़

दिल्ली के खानपुर पीपल चौक पर ट्रैफिक पुलिसकर्मी हमेशा तैनात रहते हैं। उनके सामने ही चौक पर कई सारे ऑटो वाले जब-तब खड़े होते हैं। ये ऑटो वाले पीपल चौक से विराट सिनेमा तक जाते हैं और प्रति सवारी पांच रुपये वसूलते हैं। इस व्यस्त सड़क पर हर ऑटो में छह-सात लोग ठूंस दिए जाते हैं। सुबह से देर रात तक यह सब चलता रहता है। दुखद यह है कि इनमें से कई ऑटो चालक वे किशोर हैं, जिनकी उम्र मुश्किल से पंद्रह-सोलह साल होगी। ये नाबालिग चालक तेज गति से ऑटो चलाते हैं। यह गलत है और इस पर रोक लगनी चाहिए। लेकिन तैनात पुलिसकर्मियों को इन सबसे कोई मतलब नहीं रहता। कमोबेश यही हाल तिगड़ी बस स्टैंड से पुष्पा भवन और तिगड़ी बस स्टैंड से संगम विहार के बीच है। यातायात अधिकारियों से अनुरोध है कि वे इन ऑटो को जब्त करें और नाबालिगों को ड्राइविंग से रोकें।
श्रीचरन, दक्षिणपुरी, दिल्ली-62

छुट्टियों की संख्या

अपने देश में सरकारी अवकाश की संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। भारत के विकास के रुकने का यह बड़ा कारण है। क्या यह लगता नहीं कि इस परिपाटी को विराम देने की आवश्यकता है? जापान जैसे देश में साल में 250 से अधिक कार्य दिवस होते हैं, जबकि अपने देश में 100 ही कार्य दिवस हैं। बेशक कुछ छुट्टियां हों। किंतु जिन महानुभावों के नाम पर सरकारी छुट्टियां घोषित हैं, क्या अपनी जिंदगी में वे आराम के समर्थक थे? नहीं, हमारे महापुरुष तो चाहते थे कि देश के उत्थान के लिए ज्यादा से ज्यादा काम किए जाएं। और इसके लिए तो सरकारी अवकाश घटाए जाने चाहिए। केंद्र सरकार से मैं आग्रह करना चाहूंगा कि वह दो अक्तूबर को कार्य दिवस के रूप में मान्यता दे। यह उल्लेखनीय है कि बापू सदैव कर्म को ही अपनी पूजा मानते थे।
कृष्णमोहन गोयल, बाजारकोट, अमरोहा

हिंदी दिवस के बहाने

अफसोस यह है कि हिंदी की बात तो होती है, पर इस भाषा के साथ जुड़ी भारतीय संस्कृति, सभ्यता और नैतिक शिक्षा को हम भूल जाते हैं। 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का सही अर्थ, लाभ और सम्मान तभी है, जब हम इन तमाम चीजों को याद रखें और महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों के प्र्रेरणादायक सिद्धांतों का पालन करें। यह क्या कि विदेशी मानसिकता का शिकार होकर इस दिवस की खानापूर्ति करें? यह किसी भी तरह से सराहनीय नहीं है। विचार-गोष्ठियों, सभाओं, कविता-पाठों का आयोजन तब तक सार्थक नहीं होगा, जब तक हम हिंदी को नहीं अपनाएंगे और जब तक हम विदेशी मानसिकता को त्यागकर अपनी संस्कृति, सभ्यता और नैतिक शिक्षा को अपनाकर देश की सेवा नहीं करेंगे। आइए, हम पाखंड और ढोंग को त्यागें और वास्तविकता को अपनाएं। हिंदी के लिए इससे बढ़कर कोई और समर्पण नहीं हो सकता।
देशबंधु, संतोष पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली

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