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वे तो हैं हर क्षेत्र का श्रृंगार

किसी बड़बोले को जानकर लगता है कि जैसे हम ठोक-बजाकर नारियल घर लाए और पाया कि उसमें न पानी है, न गरी। बड़बोलेपन का मर्ज अधिकतर सत्ताहीन सियासी हस्तियों और सेवानिवृत्त अधिकारियों को सताता है। एक अपनी...

वे तो हैं हर क्षेत्र का श्रृंगार
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 04 Dec 2016 09:42 PM
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किसी बड़बोले को जानकर लगता है कि जैसे हम ठोक-बजाकर नारियल घर लाए और पाया कि उसमें न पानी है, न गरी। बड़बोलेपन का मर्ज अधिकतर सत्ताहीन सियासी हस्तियों और सेवानिवृत्त अधिकारियों को सताता है। एक अपनी जनसेवा के ढोल पीटता है, दूसरा जिले या मंत्रालय में लाए अपने कायाकल्प के। बड़बोलों में शब्द की कारीगरी और उपलब्धियों के कोरेपन के समान लक्षण होते हैं। हमारे मित्र का दावा था कि रेल मंत्रालय उनकी जेब में है। हमारा अरसे से रुका रिफंड वह चुटकियों में दिलवा देंगे। अर्थहीन एटीएम के समान रेल मंत्रालय के निष्फल चक्कर काटकर पांच व हजार के नोट-सा अपना सफर तमाम हो चुका है।

जिसे मुगालते न हो, वह मनुष्य कैसा? अपने मन में साहित्यकारों का विशेष सम्मान है। संवेदना, संप्रेषण और समझ में वह हम से कहीं आगे हैं। जबसे एक नामचीन साहित्यकार के संपर्क में आए हैं, हमारी आस्था दूर के ढोल सुहावने की मसल में तब्दील हो गई है। गहन अध्ययन के दावे के विपरीत, वह सिर्फ पुस्तकों के फ्लैप पढ़ते हैं। विश्व साहित्य की उनकी गहन पकड़ का जिम्मेदार गूगल है। मुफ्त की दारू की प्रेरणा से वह हर समकालीन और अतीत के साहित्यकार की धज्जियां उड़ाने में सक्षम हैं। उनकी स्थायी टेक है कि कैसे एक बुजुर्ग रचनाकार की साजिश से वह हर प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मान से वंचित रहे हैं। सबको उनकी प्रतिभा से सौतन-सा डाह है।

आत्ममुग्धता की गटर में ऐसे अहम के अन्य कीड़े शायद ही उपलब्ध हों? सो विद्वानों का मत है कि रचना को जानो, रचनाकार को नहीं। बड़बोलेपन के बीमार हर क्षेत्र का शृंगार हैं। शोधकर्ता यह तय करने में असमर्थ हैं कि यह व्याधि शारीरिक है कि मानसिक? क्या इन सामान्य दिखनेवालों के अंदर राग ‘मैं-मैं’ का बजता बाजा फिट है? क्या जुबान में काट-छांट से इसका निदान संभव है? कुछ का मानना है कि यह शरीर का न होकर, मनोचिकित्सक का क्षेत्र है। मनोचिकित्सक कोई देवदूत तो है नहीं। वह भी अनिर्णय की भंवर में फंसे ऐसों के दिमागी परीक्षणों में बेनतीजे लगे हैं।

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