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शाम तेरे कितने रंग

बचपन में शाम खेलने का वक्त होता था। वैसे तो आते-जाते, पढ़ते-लिखते, सोते-जागते 24 घंटे ही खेला करते थे। पर चूंकि शाम खेलने का आधिकारिक वक्त था, सो हम हक से खेलते थे। शाम सीखने का वक्त भी था। साइकिल...

शाम तेरे कितने रंग
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 15 Feb 2017 09:25 PM
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बचपन में शाम खेलने का वक्त होता था। वैसे तो आते-जाते, पढ़ते-लिखते, सोते-जागते 24 घंटे ही खेला करते थे। पर चूंकि शाम खेलने का आधिकारिक वक्त था, सो हम हक से खेलते थे। शाम सीखने का वक्त भी था। साइकिल चलाना शाम को ही सीखा था और गाली देना भी। फिर थोड़े बड़े हुए और शाम का इस्तेमाल मटरगश्ती, घूमने और आवारगी में करने लगे। अब शाम का मतलब प्रयोग हो गया था। अब तक शाम के खुशनुमा रंगों से ही परिचय हुआ था। पर उसके स्याह चेहरे भी थे। ‘शाम ढल गई।’ सिर्फ एक वाक्य नहीं होता था। यह एक सभ्यता-विमर्श होता था। बहुत बाद में जाना कि शाम का एक उदास रंग भी होता है। शाम का मतलब अलग होने का वक्त होता है। शाम होते ही घर नहीं आना मां-बाप के लिए चिंताओं का पैदा हो जाना होता है। कुछ हद तक दिन के उजाले में आजाद जीने वाली नायिका को भी कहना पड़ा था- ढल गया दिन, हो गई शाम, जाने दो, जाना है।  इन सब भावों से होते हुए न जाने कैसे शामें पराभव और ढलान का प्रतीक बना दी गईं। ‘मेरी जिंदगी की शाम हो गई’ से अप्रिय दूसरा वाक्य नहीं हो सकता। असल में शाम के हजार रंग हैं। अवध की ही नहीं, धरती के हर कोने की शाम अनूठी होती है। आज फिर शाम घिरी है। आज फिर मैं कहता हूं- ‘खाली हाथ शाम भले ही आई हो! खाली हाथ जाने नहीं दी जाएगी।’
उमाशंकर सिंह की फेसबुक वॉल से

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