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यूपी के इन नतीजों में हर पाले के लिए सबक

संसदीय या विधानसभा सीटों के उपचुनाव आम तौर पर हलचल नहीं पैदा करते लेकिन यूपी में लोकसभा की एक और विधानसभा की ग्यारह सीटों पर हुए उपचुनाव अपवाद साबित हो रहे हैं। वजह, महज चार माह पहले हुए लोकसभा चुनाव...

यूपी के इन नतीजों में हर पाले के लिए सबक
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 17 Sep 2014 01:30 AM
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संसदीय या विधानसभा सीटों के उपचुनाव आम तौर पर हलचल नहीं पैदा करते लेकिन यूपी में लोकसभा की एक और विधानसभा की ग्यारह सीटों पर हुए उपचुनाव अपवाद साबित हो रहे हैं। वजह, महज चार माह पहले हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों के साए में हुए इन उपचुनावों के परिणाम बदली हुई सियासी तस्वीर लेकर आए हैं।

लोकसभा चुनाव में जहां भारतीय जनता पार्टी ने यूपी में बाकी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया था वहीं उपचुनावों में समाजवादी पार्टी ने उसे करारी शिकस्त दी है। उपचुनाव वाली विधानसभा की सीटों में 4 पश्चिमी यूपी, 2 पूर्वी, 2 बुन्देलखण्ड, 2 तराई और 1 अवध और लोकसभा की सीट मैनपुरी पश्चिम व मध्य यूपी से सम्बद्ध हैं। यानी इन सीटों का प्रदेश में पूरब से पश्चिम तक का फैलाव भी नतीजों में कमोवेश समग्र यूपी के सियासी मिजाज का प्रतिबिम्ब बनकर आया है।

लिहाजा यूपी में वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले का सेमी फाइनल माने जा रहे इस सियासी संग्राम के नतीजों में यूपी के लगभग हर सियासी पाले के लिए सबक का संदेश है। भाजपा की हार इस मायने में खासी उल्लेखनीय है कि विधानसभा की जिन 11 सीटों पर उसका व सहयोगी अपना दल का कब्जा था जिसमें से 8 सपा ने उससे छीन लीं।

इनमें रोहनियां की सीट पर अपना दल की हार इस मायने में अहम है कि यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय सीट वाराणसी का हिस्सा है। ऐसे ही बुन्देलखण्ड की चरखारी सीट पर भाजपा की हार के मायने यह हैं कि यहां से उमा भारती विधायक थीं।

वहीं सपा ने मुलायम सिंह यादव के इस्तीफे से खाली मैनपुरी संसदीय सीट पर लोकसभा चुनाव में सपा प्रमुख को मिली तीन लाख से ज्यादा मतों से जीत को उपचुनाव में भी बनाए रखने में कामयाबी पाई। एक और मार्के की बात यह कि सपा ने भाजपा से विधानसभा की जो सीटें छीन ली हैं उनपर भाजपा ने 2012 के विधानसभा चुनावों में सपा की भारी लहर के बावजूद जीत पाई थी।

वहीं पश्चिमी यूपी में जबरदस्त ध्रुवीकरण के माहौल में जिन चार सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से दो पर सपा की जीत मायने रखती है। नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी भले ही समीक्षा की बात कह रही है लेकिन उपचुनावों के प्रति उसके रवैए और प्रचार की शैली का उसे निश्चय ही खामियाजा भुगतना पड़ा। भाजपा ने उपचुनाव के प्रत्याशी बेहद देर से घोषित किए। नामों की घोषणा के बाद कई सीटों पर गुटबाजी खुलकर सामने आई। प्रचार में भाजपा ने योगी आदित्यनाथ और लक्ष्मीकांत बाजपेई को आगे किया।

केन्द्र में मोदी सरकार के 100 दिन के कामकाज को मुद्दा बनाने के बजाए आश्चर्यजनक रूप से उपचुनाव में भाजपा के ये स्टार प्रचारक लव जिहाद और मुस्लिम तुष्टिकरण को लेकर मैदान में उतर पड़े। नतीजों ने संदेश दिया है कि इन मुद्दों पर जनता ने मुहर नहीं लगाई। लिहाजा उपचुनाव के सबक से भाजपा को तय करना होगा कि योगी ब्रांड राजनीति उसे आगे जारी रखनी है या नहीं।

वहीं समाजवादी पार्टी ने उपचुनावों में न सिर्फ प्रत्याशी वक्त रहते घोषित किए बल्कि लोकसभा चुनावों से ठीक उलट पूरी पार्टी संगठित होकर लड़ी। प्रत्याशियों के चयन के मामले में पार्टी ने उसपर लगनेवाले तुष्टिकरण के आरोपों को दूर रखने की पूरी कोशिश की। जिन मंत्रियों को जहां की जिम्मेदारी मिली उन्होंने वहां संगठन से तालमेल बनाकर काम किया।

पार्टी ने विवादित बयानबाजी करने और ध्रुवीकरण के हालात पैदा करनेवाले अपने नेताओं को भी प्रचार से दूर रखा। उपचुनाव की हर सीट पर सपा मुखिया मुलायम सिंह की खुद की पैनी नजरदारी और लोकसभा चुनाव के बाद के चार महीनों में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनकी सरकार के हर मोर्चे पर पहले से ज्यादा सक्रियता का भी सपा को लाभ मिला।

लिहाजा विधानसभा चुनावों में उतरने से पहले सपा के लिए भी उपचुनावों के नतीजे सरकार और संगठन में बेहतर तालमेल के फायदों का सबक लेकर आए हैं। इन उपचुनावों का एक अहम पहलू यह भी रहा कि बसपा ने इसमें प्रत्याशी नहीं उतारे। उसने निर्दलीय प्रत्याशियों को समर्थन की घोषणा की। बसपा खुद लड़ी होती तो निसंदेह नतीजों में सीटों का आंकड़ा बदला हुआ होता लेकिन रोहनियां छोड़कर बाकी जगह निर्दलीय प्रत्याशियों की बुरी गत बसपा के लिए भी सबक का संदेश लेकर आई है। यह कि उसके वोट बैंक ने ज्यादातर जगहों पर निर्दलीय प्रत्याशियों का साथ नहीं दिया।

बसपा हालांकि इससे इनकार करती है कि उसके वोट बैंक पर कोई डाका पड़ा लेकिन पहले लोकसभा और अब यह उपचुनाव कहीं न कहीं यह चुगली तो कर रहे हैं कि बसपा को और सतर्क रहना होगा। वहीं इन उपचुनावों में कांग्रेस के लिए अगर संतोष की कोई बात है तो वह यह कि उसने सहारनपुर और चरखारी में अच्छी लड़ाई लड़ी वरना बाकी जगहों पर उसके बुरे दिन यथावत कायम रहे।

पश्चिमी यूपी के नतीजों के मायने
प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा लोकसभा चुनावों के पहले से ही भारी धार्मिक ध्रुवीकरण की चपेट में रहा है। इसमें मुजफ्फरनगर के दंगों ने लोकसभा के चुनाव में बड़ी भूमिका निभाई थी। उपचुनावों से पहले सहारनपुर में दंगे हुए। पश्चिमी यूपी की जिन चार सीटों पर उपचुनाव हुआ उनमें करीब 55 फीसदी अल्पसंख्यक वोटरों वाली सहारनपुर नगर सीट पर भाजपा की जीत दंगों के बाद सपा सरकार के प्रति उपजी नाराजगी का संदेश भी लेकर आई है।

वहीं करीब 40-40 फीसदी अल्पसंख्यक वोटरों वाली सीटों ठाकुरद्वारा और बिजनौर में सपा की जीत ने यह भी संदेश दिया है कि लोकसभा चुनाव के वक्त बना ध्रुवीकरण अब भाजपा के काम नहीं आया। उधर विशुद्ध शहरी सीट नोएडा में भाजपा की जीत ने फिर यह साबित किया है कि शहरों में भाजपा अभी भी लोकप्रिय है।

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