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समानान्तर सिनेमा के लिए सटीक रहीं मोहन राकेश की कहानियां

साठ के दशक से आरंभ होने वाले समानान्तर सिनेमा के लिए मोहन राकेश की कहानियां बहुत सटीक रहीं। मणि कौल ने मोहन राकेश की कहानी उसकी रोटी पर इसी नाम से फिल्म बनायी, जो समानान्तर सिनेमा के लिए मील का पत्थर...

समानान्तर सिनेमा के लिए सटीक रहीं मोहन राकेश की कहानियां
एजेंसीMon, 07 Jan 2013 04:37 PM
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साठ के दशक से आरंभ होने वाले समानान्तर सिनेमा के लिए मोहन राकेश की कहानियां बहुत सटीक रहीं। मणि कौल ने मोहन राकेश की कहानी उसकी रोटी पर इसी नाम से फिल्म बनायी, जो समानान्तर सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुयी।

मणि कौल ने मोहन राकेश की कई कहानियों पर फिल्में बनायीं, जिन्होंने गैर-पेशेवर फिल्मों की श्रेणी में प्रयोगधर्मी सिनेमा के नयी धारा आंदोलन को ऐतिहासिक पहचान दी। मोहन राकेश के कहानी संग्रह के चयनकर्ता एवं साहित्य समीक्षक जयदेव तनेजा ने बताया कि हिन्दी के समानान्तर सिनेमा ने मोहन राकेश के अलावा निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, रमेश बक्शी, विनोद कुमार शुक्ल, धर्मवीर भारती सरीखे लेखकों की रचनाओं को चुना। सभी नयी कहानी आंदोलन से जुड़े रचनाकार थे और नयी लहर के सिनेमा को भी नयी कहानी का सहारा चाहिए था।

फिल्म वित्त निगम ने 60 के दशक में सिनेमा के लिए नयी जगह बनानी शुरू की थी। दशक के अंतिम वर्षों में भारतीय भाषाओं में अनेक ऐसी फिल्में बनीं, जिन्होंने समानान्तर अथवा सार्थक सिनेमा आंदोलन को गति दी। फ्रांस में पचास के दशक के निर्देशकों गोदार, फ्रांसुआ, त्रुफो आदि की फिल्मों को वहां के समीक्षकों ने फ्रांसीसी भाषा में नूवेन वाग (यानी नयी धारा) का नाम दिया। हिन्दुस्तान में इस प्रकार की फिल्मों को समानान्तर या सार्थक सिनेमा कहा गया।

फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ने इप्टिनामा में लिखा, समानान्तर सिनेमा की प्रमुख फिल्मों में वी शांताराम की स्त्री (1962) सत्यजीत रॉय की चारूलता नायक और गोपी गायन बाघा बायन सरीखी फिल्में थीं। हालांकि शांताराम मुख्यधारा की सिनेमा की पैदाइश थे, लेकिन बीके कंजरिया के एफएफसी के अध्यक्ष बनने के बाद छोटे बजट की प्रयोगधर्मी फिल्मों को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ।

जयदेव तनेजा ने बताया कि नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकार मोहन राकेश समानान्तर सिनेमा के प्रमुख निर्देशक मणि कौल के पसंदीदा रचनाकार थे। मणिकौल ने मोहन राकेश की उसकी रोटी और आषाढ़ का एक दिन पर फिल्म बनायीं। इसके अलावा रमण कुमार ने फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान पुणे के लिए सदमा बनायी, जो मोहन राकेश की कहानी एक ठहरा हुआ चाकू का रूपांतर थी।

उन्होंने कहा कि जोगेन्द्र शैली ने टीवी धारावाहिक मिटटी के रंग के लिए राकेश की मवाली एक ठहरा हुआ चाकू आखिरी सामान मिस्टर भाटिया सुहागिनें मएस्थल तथा एक और जिंदगी का चुनाव किया। वहीं राजिन्द्र नाथ ने दूरदर्शन के लिए राकेश की कहानी आद्र्रा का फिल्मांकन किया।

देवन्द्र राज अंकुर ने कहानी का रंगमंच शैली की विभिन्न प्रस्तुतियों के लिए अपरिचित मलबे का मालिक बस स्टैंड पर एक रात मिस पॉल एक और जिंदगी जानवर और जानवर का इस्तेमाल किया। मधुसूदन आनंद ने लिखा है, समानान्तर सिनेमा के दो ध्रुव थे जिसके एक ओर बांग्ला फिल्मकार मणाल सेन की भुवन शोम (1969) बासु चटर्जी की सारा आकाश एमएस सत्तू की गर्म हवा श्याम बेनेगल की अंकुर जैसी फिल्में थीं वहीं दूसरी ओर मणि कौल की उसकी रोटी माया दर्पण और दुविधा जैसी फिल्में प्रचलित परिभाषा से काफी दूर थीं।

मोहन राकेश का जन्म आठ जनवरी 1925 को अमृतसर में हुआ था। उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से हिंदी और अंग्रेजी में एमए किया। जीविकोपर्जन के लिए कुछ समय तक अध्यापक कार्य किया। फिर बाद में सारिका के संपादक हो गये। वह नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकार थे। उन्होंने आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे अधूरे कुल तीन नाटक लिखे। इब्राहिम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड, श्यामानंद जालान, रामगोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने इनके नाटकों को निर्देशित किया। जिन्हें अपार सफलता मिली।

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