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गंज विमर्श

यद्यपि गंजत्व हास्य का विषय है, तथापि खल्वाट खंभ केपी सक्सेना ने ‘नक्कारखाना’ में इसकी बाबत अपनी कलम की कैंची चलाकर हिंदी व्यंग्य साहित्य की खोपड़ी पर एक नए विमर्श के उगने का मार्ग...

गंज विमर्श
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 25 Jun 2009 08:34 PM
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यद्यपि गंजत्व हास्य का विषय है, तथापि खल्वाट खंभ केपी सक्सेना ने ‘नक्कारखाना’ में इसकी बाबत अपनी कलम की कैंची चलाकर हिंदी व्यंग्य साहित्य की खोपड़ी पर एक नए विमर्श के उगने का मार्ग प्रशस्त किया है। बड़े भाई हैं, टक्कलपन में भी मुझसे बड़े हैं। उन्होंने बाल वर्चस्व वाले शीर्ष सत्तात्मक समाज में अप्रस्तुत की सूक्ष्मताओं की चिंता की जड़ों तक पहुंचने का सराहनीय सरोकार दिखलाया है। इसके लिए वे गुच्छ गल्प की वाह्य असंगतियों के अछायावादी युग के प्रवर्तक रचनाकार मान लिए जाएं तो आश्चर्य न होगा। बस केपी भाई पर किसी खाल से बाल निकालने वाले गंजे समालोचक की दृष्टि पड़ने भर की देर है। मेरा मानना है कि जिस तरह आज के लेखन में नारी-विमर्श, दलित-विमर्श आदि को रेखांकित किए जाने का फैशन है, उसी तरह समकालीन व्यंग्यकार यदि गंजा-विमर्श में अपनी संभावनाएं तलाश करेंगे, तो उनका करियर और भी संवर सकता है। केशवदास केशों पर एक दोहा लिखकर उद्धरणीय हो सकते हैं, तो वक्त के ‘विग’-बाजार में गंजपन पर व्यंग्य लिखकर अमर क्यों नहीं हुआ जा सकता है? ‘व्यंग्य-यात्रा’ के स्वनामधन्य संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय, यदि चाहें तो वे गंजा-विमर्श केंद्रित विशेषांक निकालकर सहयोग कर सकते हैं। राग दरबारी में जिन गंजों का उल्लेख आया है, वहीं से गंजा विमर्श का प्रस्थान-बिंदु मान सकते हैं।


‘गिव ऐंड टेक’ की पावन परंपरा का कुशल निर्वहन करते हुए मैं भी उनके इस पराक्रम के लिए गंज मुरादाबाद के एक समारोह में उन्हें गंजी पहनाकर और गांजे की चिलम भेंटकर पुरस्कृत करने में सबसे आगे मिलूंगा। इस मौके पर आदरणीय गोपाल चतुर्वेदी को ‘व्यंग्य वाड़्मय में चिकने घड़ों का योगदान’ विषयक व्यंग्य संगोष्ठी के आयोजन का सुझव भी दिया जा सकता है। व्यंग्यकारों की टक्कल-त्रयी भी बनाई जा सकती है। इसके लिए बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं। सिर्फ दो लोगों की कमी है। तीसरा तो मैं स्वयं को माने ही बैठा हूं। इस तरह टकलेपन को चर्चा के केंद्र में लाया जा सकता है। व्यंग्य इतिहासज्ञ बंधु सुभाष चंदर को एक और इतिहास लिखने का गारा-मसाला मिल सकता है। इस गंजा-विमर्श की गोष्ठियों और सेमिनारों के चलते बड़े-बड़े मुद्दों पर राष्ट्रीय चिंतन करने वाले साहित्यकार कुंठित होकर मात्र ‘बाल’ साहित्य लिखने लग सकते हैं। इस तरह बाल साहित्य को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने वालों की संख्या में कमी आ सकेगी। कल को गंजावादी व्यंग्यकार अपना एक राजनीतिक संगठन बना लें, तो भी आश्चर्य न होगा। भगवान ने इनको नाखून न दिए, न सही। हाथों में कलम थमाकर विसंगतियों की हजामत बनाने का जिम्मा तो दे ही रखा है।

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