दीवानगी की हद तक जानलेवा सनकीपन का भी है इलाज
बेंगलुरू के एक कंप्यूटर इंजीनियर ने पिछले दिनों आत्महत्या कर ली थी। वह भी, यह जानने के लिए कि मौत के बाद की जिंदगी कैसी होती है। आईबीएम में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी उसे जिंदगी की खूबसूरती नहीं...
बेंगलुरू के एक कंप्यूटर इंजीनियर ने पिछले दिनों आत्महत्या कर ली थी। वह भी, यह जानने के लिए कि मौत के बाद की जिंदगी कैसी होती है। आईबीएम में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी उसे जिंदगी की खूबसूरती नहीं दिखा पाई और वह मौत के बाद की खूबसूरती निहारने के लिए दूसरी दुनिया को चल निकला। हैदराबाद की फ्लाइट पकड़ी और वहां के श्री श्याम मंदिर में जहर खाकर हमेशा की नींद सो गया। अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा - ‘इस स्वार्थी दुनिया को अलविदा। मैं इस दुनिया से थक चुका हूं और उस दुनिया को देखना चाहता हूं जो मौत के बाद मिलती है।’
ऊपरी तौर पर देखा जाए तो यह एक सामान्य आत्महत्या लगती है। लेकिन क्या यह बस इतनी सी बात है? बिल्कुल नहीं। यह ऑब्सेशन का ही दूसरा रूप है। जब मन पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं रहता और वह बस एक ही दिशा में सोचना शुरू कर देता है। इसे दीवानगी विज्ञान की भाषा में ऑब्सेशन यानी किसी व्यक्ति-वस्तु या विचार के प्रति दीवानगी कहते हैं।
अपोलो अस्पताल की कंसल्टेंट साइकोलॉजिस्ट डॉ. राखी आनंद कहती हैं, ‘ऑब्सेशन किसी भी किस्म का हो सकता है। किसी को सफाई को लेकर हो सकता है, किसी को खाने का तो किसी को घूमने-फिरने और शॉपिंग का। किसी न किसी बात का ऑब्सेशन तो हरेक व्यक्ति में होता ही है, लेकिन अगर यह ऑब्सेशन हद से अधिक बढ़ जए तो यह क्लीनिकल इलनेस बन जता है। इनसे व्यक्ति की बेसिर पैर की आदतों या सोच का खुलासा होता है जिनके प्रति वे ऑब्सेस्ड हो जाते हैं।’
जानलेवा फितरत है ऑब्सेशन
ऑब्सेशन कई बार जानलेवा साबित होता है। बेंगलुरू के टेकी प्रदीप के साथ ऐसा ही हुआ। बाद में आई खबरों से यह मालूम चला कि माता-पिता उससे बहुत सी उम्मीदें लगाते थे। कई बार वह यह महसूस करता था कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा। वह एक धार्मिक परिवार का लड़का था और धर्मभीरू भी था। उसे लगता था कि वह ईमानदार है लेकिन दुनिया उसे समझ ही नहीं पा रही। इसलिए उसने यह फैसला किया कि वह और जीना नहीं चाहता।
मैंगलोर के कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज के कंसल्टेंट साइकेट्रिस्ट डॉ. रवीश थुंगा के अनुसार, ‘आपकी अपनी प्रवृत्ति कई बार आपको इस हद तक दीवाना बना देती है कि आप एक ही एंगल से सब कुछ सोचने लगते हैं। इसके बाद जो आप सोचते हैं, उसी को सही मानते हैं। इसलिए जरूरी है कि ऐसे लोगों को बातचीत से समझाया जाए। अगर इसके बावजूद वे न समझें तो उनकी काउंसलिंग कराई जाए।’
बेचारगी की हद तक
बातचीत कई बार इस स्थिति में काम नहीं आती। इलाहाबाद से दिल्ली नौकरी के सिलसिले में आए किशोर श्रीवास्तव (बदला हुआ नाम) इन दिनों अपनी 75 वर्षीय माँ के ऑब्सेशन से परेशान है। माँ को नहाने और हाथ-मुंह धोने का शौक है। बुजुर्ग महिला हैं तो छुआछूत भी बहुत करती हैं। पता चला, सुबह सात बजे नहाने बाथरूम में घुसीं तो दोपहर एक बजे तक नहाती रहीं। टंकी का पानी खत्म, तो अंदर से चिल्लाना शुरू। फिर अगर किसी कारणवश किसी मेहमान ने घर में आकर उन्हें छू दिया तो फिर नहाने चली गईं। कुल 30 किलो वजन और खाना-पीना शून्य। किशोर बहुत परेशान हैं। जब डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि उन्हें एब्लूटोमेनिया नामक बीमारी हो गई है जिसमें व्यक्ति खुद को हमेशा साफ रखना चाहता है।
‘इस उम्र में यह बीमारी आपको बेचारा बना देती है।’ सीनियर बिहेवियर एक्सपर्ट डॉ. ज्योति लाल कहती हैं, ‘इस मामले में एक बहुत बड़ी वजह बुढ़ापा है, लेकिन अक्सर कम उम्र वाले भी ऐसी हरकत करने लगते हैं। क्या आप किसी किताबों या संगीत के शौकीन को बीमार मान सकते हैं?
लेकिन किताबें या पढ़ने के लिए दीवाना कोई व्यक्ति बिबलियोमेनिया या संगीत का दीवाना मूसोमेनिया का शिकार हो सकता है। हां, इनके लिए किसी इलाज की जरूरत नहीं पड़ती। पर कई बार ऑब्सेशन आपके भीतर दूसरी समस्याएं पैदा कर देता है। किशोर की मां के साथ ऐसा ही हुआ। ज्यादा नहाने से वह साइनस और न्यूमोनिया की शिकार हो गईं। उनकी त्वचा खराब हो गई। तब उनका इलाज शुरू किया गया।’
इलाज संभव है..
ऑबसेशन का इलाज है, अगर समय पर इसे शुरू किया जए। पिछले साल दिल्ली के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि वह भी मौत के रहस्य का पता लगाना चाहता था। वह अक्सर अपने दोस्तों के साथ इस सिलसिले में बात करता था और मौत पर कविताएं भी लिखा करता था। वह झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ गया था, इसके बावजूद कि वह साइंस और मैथ्स का मास्टर था। उसके माता-पिता रोते रहे, लेकिन जब बेटे में ऑब्सेशन घर कर रहा था, वे नदारद थे। डॉ. लाल कहती हैं, ‘बचपन में कई बार कुंठा का शिकार होकर कोई व्यक्ति किसी खास किस्म की आदत को अपना लेता है। बाद में वही आदत ऑब्सेशन बन जाती है।’
डॉ. लाल इस संबंध में ध्यान रखने को कहती हैं..
- सबसे पहले तो ऑब्सेशन का शिकार होने वाले व्यक्ति से संपर्क में रहिए। उसे एकांगी और आत्मकेंद्रित होने से बचाइए। उससे बातचीत करते रहिए। बातचीत करते रहने से व्यक्ति को उन लतों के बारे में सोचने का समय नहीं मिलता। ध्यान रखने वाली बात ये है कि ऐसे मरीज को डांटे नहीं, क्योंकि गुस्से और हताशा में वह गलत कदम भी उठा सकता है।
- उसे समझने की कोशिश कीजिए और उसके सोचने के तरीके में बदलाव करें।
- परिवार वालों को भी समझदार होना चाहिए। उन्हें ऐसी कोई उम्मीद नहीं लगानी चाहिए जो व्यक्ति पूरा न कर पाए।
- किसी के सामने उसकी आदत का मजक मत बनाइए। न ही उसे उत्तेजित करने की कोशिश कीजिए। उसे बस इतना अहसास दिलाइए कि वह आपका खास है।
डॉ. जितेंद्र नागपाल, सीनियर कंसल्टेंट साइकेट्रिस्ट, विमहांस कहते हैं, ‘आजकल बहुत से सामाजिक व्यवहार ऑब्सेशन का रूप ले लेते हैं। चूंकि अब लोगों के पास परिवार के लिए समय नहीं। इसलिए अगर परिवार में किसी को कोई समस्या होती है तो लोग एक दूसरे से बातचीत करके उसे नहीं सुलझा पाते। इसके अलावा पढ़ाई, नौकरी, टूटते संबंध और दूसरी समस्याएं आ खड़ी होती हैं। कई बार ऑब्सेशन इसलिए भी उत्पन्न होता है क्योंकि लोग दूसरों का ध्यान अपनी तरफ बंटाना चाहते हैं। अगर रिश्ते मजबूत हों तो ऐसी समस्याएं नहीं
खड़ी होंगी।