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प्रधानमंत्री का आशावाद

अपने दूसरे कार्यकाल में उम्मीदों से लबरेज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऊंचे लक्ष्यों को पाने के लिए किसी भी तरह की सीमाएं मानने को तैयार नहीं हैं। अगर योजना आयोग इस साल की विकास दर को 6.7 तक खींच पाने का...

प्रधानमंत्री का आशावाद
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 11 Jun 2009 12:48 AM
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अपने दूसरे कार्यकाल में उम्मीदों से लबरेज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऊंचे लक्ष्यों को पाने के लिए किसी भी तरह की सीमाएं मानने को तैयार नहीं हैं। अगर योजना आयोग इस साल की विकास दर को 6.7 तक खींच पाने का साहस जुटा रहा है तो मनमोहन सिंह का आर्थिक उत्साह उसे आठ से नौ प्रतिशत ले जाने को तैयार है। वित्तीय घाटे की कोई परवाह किए बिना उन्होंने विकास की ऊंची दर हासिल करने और महंगाई पर लगाम लगाने का लक्ष्य रखा है और मंदी के इस दौर में यही पूरी दुनिया का दस्तूर है। ढांचागत योजनाओं में निवेश और प्रमुख कार्यक्रमों का बजट बढ़ाने के लिए वे कटिबद्ध दिखते हैं और यही वजह है कि सोमवार को मुरझाता शेयर बाजर उनका भाषण सुनकर सूरजमुखी की तरह खिल उठा। लेकिन बात आगे भी जाती है। मनमोहन सिंह के आर्थिक विकास का यह सरोकार संपूर्ण दक्षिण एशिया के बारे में है। वे चाहते हैं कि इस इलाके की डेढ़ अरब जनता की दरिद्रता और दुख दूर हो और उनकी खुशहाली के सपने पूरे हों। इसीलिए वे श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान तक एक सद्भाव की नीति अपनाने पर भी जोर दे रहे हैं। उन्होंने पाकिस्तान से आतंकवाद पर कार्रवाई का अनुरोध करते हुए यह माना है कि इन दोनों पड़ोसी देशों में वार्ता के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर दिए गए अपने धन्यवाद प्रस्ताव में उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि पाकिस्तान ने मुंबई और भारत में हुए अन्य आतंकी हमलों के अपराधियों पर पर्याप्त कार्रवाई नहीं की है पर उन्होंने वहां के नेतृत्व के विवेक में आशा नहीं त्यागी है। इसके पीछे एक अनुभवी राजनेता की समझ भी है और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी। आतंकवाद और पड़ोसी देश के प्रति भारत की यह नीति उसी धैर्य और संयम का हिस्सा है, जो भारत ने मुंबई हमले के बाद दर्शाया था।

दरअसल, मनमोहन सिंह अच्छी तरह समझते हैं कि विकास का जो लक्ष्य वे लेकर चल रहे हैं, वह भीतरी और बाहरी सद्भाव के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में विवादों में घिरे उस महिला आरक्षण विधेयक पर जोर नहीं दिया, जिसके लिए राष्ट्रपति के अभिभाषण में बाकायदा संकल्प जताया गया था। इससे लगता है कि विपक्षी दल भाजपा से मैत्री का हाथ बढ़ा रहे प्रधानमंत्री अपने साथ खड़ी मंडलवादी पार्टियों से खुले टकराव को टालना चाहते हैं। लेकिन एक तरफ अरुण जेटली की तारीफ और दूसरी तरफ आडवाणी और वामपंथियों की उपेक्षा कर उन्होंने यह भी जता दिया है कि आम राय बनाने का यह प्रयास समर्पण नहीं है।

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