अगला शेर पढ़ गया..सरकार तुनतुना गई
ठंडक बढ़ रही थी। मौलाना टोपा चढ़ाए, पतली जयपुरी रजाई लपेटे मुंह से यों भाप छोड़ रहे थे, गोया लगातार बीड़ी पी रहे...
ठंडक बढ़ रही थी। मौलाना टोपा चढ़ाए, पतली जयपुरी रजाई लपेटे मुंह से यों भाप छोड़ रहे थे, गोया लगातार बीड़ी पी रहे हों। बोले, ‘भाई मियां, जाड़ा अगर पिछले साल की तरह रेकॉर्ड तोड़ पड़ना है, तो सरकार अफजल गुरु से पहले मुङो फांसी चढ़ा दे। ये बूढ़ी हड्डियां बहुत ज्यादा नहीं कड़कड़ा पाएंगी। जवानी भर दिसंबर में सिर्फ एक बनियाइन भारी लगती थी, अब मोहल्ले भर की तमाम रजाइयां कम हैं। लो गुड़ खाओ। ससुराल से आया है।’
गुड़ की डली मुंह में घुमाकर बोले, ‘अल्ला मीडिया वालों को सलामत रखे, न्यूजों में गरमाहट बनी हुई है। छपा है कि- सुन ले ए हुकूमत, हम तुझे नामर्द कहते हैं। सरकार शायद तुनतुना गई। खुलासा यों है कि अपने यूपी में शहरे नफासत लखनऊ.., लखनऊ में महोत्सव., महोत्सव में मुशायरा। उसके बाद मुशायरे में शायर मुनव्वर राणा और उनका शेर .‘अगर दंगाइयों पर तेरा कोई बस नहीं चलता., तो सुन ले ऐ हुकूमत हम तुम्हें नामर्द कहते हैं।’ वल्लाह! शेर सरकार तक पहुंचा होगा, तो तुनतुना गई होगी।
अब इतने बड़े शायर को ऐसा नहीं बोलना था। सरकार को और कुछ कह लेते, नामर्द नहीं। एक से एक घपलेबाज पैदा कर दिए, कोयले तक को नहीं बख्शा। अब बताओ भला ऐसी सरकार नामर्द कैसे हो गई? आतंकी वगैरह दीगर चीज है। ये तो इस जहां के हर मुल्क में हैं। सच तो यह है भई कि ऐसी ‘प्रोडक्टिव’ सरकार मैंने अपनी उम्र भर में कहीं नहीं देखी।’ एक और डली मुंह में घोलकर बोले, ‘भाई मियां, सरकारी मुशायरों में शायर को ऐसे शेर पढ़ने चाहिए, जिनमें सरकार की लल्लो-चप्पो और खुशनूही हो। ऐसे शेर आ जाएं, तो सरकार तड़ से.. आगे बढ़कर इकराम बख्श देती है। मैं भी ऐसी शायरी का कायल हूं, जो सरकार की सारी गलत नीतियों और सड़ांध को इन्नोसुंदल की शानदार और आला किस्म की उपमाओं से सजा दे। फिर तो सरकार भी खुश और शायर जनाब के तो क्या कहने। अब सुनने वाला भले ही माथा पीट ले। उसके लिए लिखा भी कहां था? शायर भय्ये, प्लीज ध्यान रखें। आओ भाई जान, एक-एक शेर..उंह चाय हो जाए।