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‘बर्फी’ ऑस्कर में, विवाद भारत में

अपने साथ की करीब डेढ़ दर्जन फिल्मों से भिड़ कर अनुराग बसु की ‘बर्फी’ के ऑस्कर की दौड़ में भेजे जाने से जहां सिनेप्रेमी खुश हैं, वहीं इस फिल्म के चयन पर उंगलियां भी उठ रही हैं।...

‘बर्फी’ ऑस्कर में, विवाद भारत में
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 29 Sep 2012 11:59 AM
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अपने साथ की करीब डेढ़ दर्जन फिल्मों से भिड़ कर अनुराग बसु की ‘बर्फी’ के ऑस्कर की दौड़ में भेजे जाने से जहां सिनेप्रेमी खुश हैं, वहीं इस फिल्म के चयन पर उंगलियां भी उठ रही हैं। ‘बर्फी’ को ऑस्कर में भेजे जाने और ऑस्कर पाने की हमारी उम्मीदों पर दीपक दुआ की रिपोर्ट।

यह तो खैर तय ही है कि अगर 2001 में अपने यहां से आमिर खान की ‘लगान’ ऑस्कर के लिए न जाती और आमिर खान वहां जाकर इस फिल्म का धुआंधार प्रचार कर के इसे फाइनल राउंड तक न ले गए होते तो आज शायद ही किसी आम भारतीय सिने-प्रेमी को ऑस्कर पुरस्कारों में कोई खास दिलचस्पी होती। फिर तीन साल पहले ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के लिए ए़आऱ रहमान, गुलजार और रसूल पूकुट्टी को ऑस्कर मिलने के बाद तो जैसे अब यहां हर कोई अपनी किसी फिल्म को ऑस्कर पाते हुए देखने को लालायित है। पर क्या हमारी यह लालसा इस बार पूरी हो पाएगी? क्या रणबीर कपूर-प्रियंका चोपड़ा की ‘बर्फी’ ऑस्कर पुरस्कार से अपनी झोली भर कर लौटेगी या फिर हर बार की तरह इस बार भी हम मन मसोस कर रह जाएंगे?

विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म
दरअसल अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री यानी हॉलीवुड की ऑस्कर अकादमी यानी एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज की तरफ से दिए जाने वाले ऑस्कर पुरस्कार मुख्यत: वहीं की फिल्मों के लिए ही होते हैं लेकिन इस जमावड़े में एक पुरस्कार ‘विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म‘ का भी होता है जिस के लिए ऑस्कर अकादमी दुनिया भर से फिल्में आमंत्रित करती है। विभिन्न देशों से आई फिल्मों में से किन्हीं पांच को ऑस्कर की ‘विदेशी भाषा फिल्म पुरस्कार समिति’ के करीब छह सौ सदस्य चुनते हैं। इन अंतिम पांच फिल्मों को तकरीबन छह हजार सदस्यों की वोटिंग का सामना करना पड़ता है और तब कहीं जाकर वह एक फिल्म चुनी जाती है जिसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर मिलता है।

भारत से जाती रही हैं फिल्में
भारत से ऑस्कर के लिए फिल्म चुन कर भेजने के लिए अधिकृत संस्था फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया (एफ.एफ़आई़) है जो देश भर के फिल्म निर्माताओं की संस्थाओं से फिल्में भेजने का आग्रह करती है। अलग-अलग भाषाओं से आने वाली इन फिल्मों में से किसी एक को ऑस्कर के लिए भेजा जाता है। आमतौर पर नियम यह है कि पिछले एक साल के दौरान वह फिल्म उस देश के किसी सिनेमाहॉल में कम से कम एक हफ्ते तक सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित हुई हो। इस के पीछे मंशा यह है कि वह फिल्म आत्मसंतुष्टि के लिए न बनी हो बल्कि उसे आम दर्शकों की चाहत भी नसीब हुई हो। एक और नियम यह है कि फिल्म अंग्रेजी में न हो और मोटे तौर पर उस देश की किसी आधिकारिक भाषा में हो। अब तक तीन भारतीय फिल्में आखिरी पांच में पहुंच पाई हैं। इनमें पहली थी भारत की ओर से ऑस्कर में गई पहली फिल्म ‘मदर इंडिया’। महबूब खान की इस फिल्म के अलावा मीरा नायर की ‘सलाम बांबे‘ और आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’ यहां तक पहुंचीं, मगर ऑस्कर की मूरत इन में से किसी को भी नहीं मिल सकी।

क्यों नहीं जीती कोई फिल्म
यह सही है कि कई बार हमारे यहां से ऑस्कर के लिए बहुत खराब फिल्में भेजी गई हैं। वजह चाहे क्षेत्रीय दबाव रहे हों या फिर उस फिल्म से जुड़े चमकते नाम, लेकिन यह भी सच है कि बहुत बार सचमुच शानदार फिल्में भी भेजी गईं, जो उस साल ऑस्कर पाने वाली फिल्मों से भी अच्छी थीं। बस, कभी मार्केटिंग की दिक्कत आई तो कभी हमारे सिनेमा की मसाला इमेज की। और कुछ नहीं तो भारत और भारतीयों के प्रति वहां वालों के पूर्वाग्रह आड़े आ गए। जिन फिल्मों को यह पुरस्कार मिलता रहा है उनमें ज्यादातर में किसी आम आदमी के जीवट की कहानी थी या फिर मानवीय मूल्यों की दास्तान।

क्यों नहीं जीतेगी ‘बर्फी’?
यूं तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी उम्मीदें जताई जा रही हैं मगर कई लोगों की यह राय भी है ऑस्कर के लिए वोटिंग करने वाले नासमझ नहीं हैं और इस फिल्म को देख कर वे ‘द एडवेंचरर’, ‘सिंगिंग इन द रेन’, ‘द कॉप्स’ और ‘द नोटबुक’ से कॉपी किए गए सीन साफ पकड़ लेंगे और ‘बर्फी’ का दावा वहीं पिलपिला हो जाएगा।
दूसरी बात यह कही जा रही है कि यह फिल्म सच्चे अर्थों में भारतीय जमीन से जुड़ी कोई कहानी नहीं कहती है। ऑस्कर के फाइनल में जगह बनाने वाली अब तक की तीनों भारतीय फिल्में ‘मदर इंडिया’, ‘सलाम बांबे’ और ‘लगान’ पूरी तरह से भारतीय रंग में रची-बसी थीं।

ये भी थीं दावेदार
इस बार जो फिल्में ऑस्कर की दौड़ में जाने के लिए आई थीं उनमें अकेली ‘बर्फी’ ही दमदार नहीं थी। हिन्दी में ही देखें तो ‘हीरोइन’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘गट्टू’, ‘जलपरी’, ‘फरारी की सवारी’ वगैरह भले ही ऑस्कर में पहुंचने वाली फिल्मों के नजरिए से ज्यादा दमदार नहीं थीं लेकिन ‘द डर्टी पिक्चर’ या ‘कहानी’ का दावा हल्का नहीं था। फिर वह ‘विकी डोनर’ भी यहां आनी चाहिए थी जिसके डायरेक्टर शुजित सरकार ने खुल कर इसकी निर्माता कंपनी के प्रति अपनी नाराजगी जताई कि उन्होंने इस फिल्म को भेजना तक मुनासिब नहीं समझा। इनके अलावा तेलुगू की ‘ईगा’ का दावा काफी सशक्त था। गौरतलब है कि यह फिल्म दो हफ्ते बाद हिन्दी में ‘मक्खी’ नाम से डब होकर आ रही है।

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