संपन्न राज्यों को भी शिकायत है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में एक नए तरह के ‘कोऑपरेटिव फेडरलिज्म’ यानी सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना चाहते हैं। वह इसे ‘सहकारी और प्रतिस्पर्धी संघवाद’ कहते हैं। इस अवधारणा...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में एक नए तरह के ‘कोऑपरेटिव फेडरलिज्म’ यानी सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना चाहते हैं। वह इसे ‘सहकारी और प्रतिस्पर्धी संघवाद’ कहते हैं। इस अवधारणा का एक महत्वपूर्ण पहलू है राज्यों को अधिक वित्तीय आजादी देना, ताकि वे अपने विकास का एजेंडा खुद तय कर सकें। माना जा रहा है कि केंद्र-राज्य संबंधों पर इसका गहरा असर होगा। यह सोच गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के अर्जित अनुभवों की उपज है। तब उन्होंने महसूस किया था कि केंद्र सरकार राज्यों के खर्च के नियंत्रण के मामले में जरूरत से ज्यादा सख्ती बरतती है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने अब इस स्थिति को बदलने के लिए दो रास्ते अपनाए हैं। एक, उसने योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन किया है और दूसरा, 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है।
14वें वित्त आयोग ने एक साहसिक सुधारवादी कदम उठाते हुए करों के ‘विभाज्य पूल’ में राज्यों की हिस्सेदारी को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 फीसदी कर दिया है। जाहिर है, यह पुरानी सिफारिशों से बिल्कुल उलट है, क्योंकि इसके पहले आयोगों की सिफारिशें महज एक या दो प्रतिशत इजाफे की हुआ करती थीं। दूसरी तरफ, केंद्रीय बजट में योजनागत खर्च में कटौती की गई है, केंद्रीय सहायताओं को कम कर दिया गया है और केंद्र प्रायोजित योजनाओं की भी छंटाई की गई है। लेकिन तमिलनाडु जैसे विकसित राज्य इसकी आलोचना कर रहे हैं। उनका आरोप है कि वित्त आयोग ने एक हाथ से जो दिया है, वित्त मंत्रालय ने दूसरे हाथ से उसे ले भी लिया है।
जाहिर है, वित्त आयोग का गठन संविधान के निर्देशों के तहत हुआ है और उसका काम केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व व खर्च का संतुलन उसी तरह से बिठाना है, जैसे विधायी शक्ति के मामले में केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के जरिये केंद्र और राज्यों में संतुलन बिठाया गया है। राज्यों की अक्सर ये शिकायत रही है कि उनके खर्च केंद्र के मुकाबले अधिक हैं, जबकि कर उगाही के अधिकार केंद्र के पास ज्यादा हैं। इस शिकायत को दूर करने के लिए हर पांच साल पर वित्त आयोग से अपील की जाती है और उसकी जो सिफारिशें होती हैं, उन्हें केंद्र अमूमन स्वीकार भी कर लेता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाई वी रेड्डी के नेतृत्व में 14वें वित्त आयोग का गठन यूपीए-दो की सरकार के समय हुआ था।
उसकी सिफारिशों को एनडीए सरकार ने स्वीकार किया है। आयोग ने यह साफ किया है कि हालांकि राज्यों को हस्तांतरित होने वाले हिस्से में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी की गई है, लेकिन उनका शेयर प्रतिशत पहले जैसा रहेगा।
केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व का हस्तांतरण ग्रांट और सहायता के रूप में, केंद्र प्रायोजित योजनाओं व वित्त आयोग के जरिये होता है। चूंकि केंद्रीय योजनाओं व उनसे जुड़े कार्यक्रमों के लिए ग्रांट व मदद के तौर पर पैसे जारी किए जाते हैं, इसलिए राज्यों के पास कोई विकल्प नहीं बचता कि वे अपनी जरूरत या इच्छा के अनुरूप इन्हें खर्च कर सकें। इसी तरह, राज्य योजनाओं के लिए जारी धन विशेष महत्व रखता है। वित्त आयोग द्वारा हस्तांतरित इस धन को ‘सांविधिक हस्तांतरण’ कहते हैं।
इसके मामले में राज्यों को पूरा हक है कि वे इसे अपनी मर्जी से खर्च कर सकते हैं। इसलिए विभाज्य पूल से राज्यों के हिस्से में बढ़ोतरी का राज्य पहली नजर में स्वागत करते रहे हैं। इसे वित्त आयोग द्वारा ‘सीधा हस्तांतरण’ कहा जाता है। लेकिन राज्यों की चिंता ‘क्षैतिज हस्तांतरण’ को लेकर है। कई राज्यों को तो धन का प्रवाह पूर्ववत ही रह जाएगा, क्योंकि उनके अंश के आकार में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु का क्षैतिज हस्तांतरण प्रतिशत 4.96 से घटकर चार प्रतिशत रह गया है। यह राज्य अभी इस बारे में स्पष्ट नहीं है कि कितना सहायता अनुदान हस्तांतरणवादी ग्रांट में परिणत होने जा रहा है, जो राज्य सरकार के मुफीद होगा। पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता ने बयान जारी करके कहा है कि ‘केंद्र ने अनेक योजनाओं के खर्च का भार राज्यों के कंधों पर डाल दिया है’ और यह वित्त आयोग की सिफारिशों को बेअसर कर देता है। जयललिता का कहना है कि ‘केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं पर खर्च का अतिरिक्त बोझ राज्य से उठाने की अपेक्षा अनुचित है।’
इसी तरह, हस्तांतरण फॉर्मूले में बदलाव को लेकर भी राज्यों में अप्रसन्नता है। उदाहरण के लिए, इसमें ‘वन आच्छादन’ को 7.5 प्रतिशत अंक दिया गया है और जाहिर-सी बात है कि इसका फायदा पूर्वोतर के राज्यों व कुछ हद तक केरल को मिलेगा। क्षेत्रफल का महत्व 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया गया है। इसका सीधा फायदा उत्तर प्रदेश को मिलेगा, जिसका पास बहुत बड़ा भूभाग है। ‘राजस्व अनुशासन’ का महत्व पहले 17.5 प्रतिशत था, जिसमें कटौती की गई है और इसका खामियाजा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे वित्तीय रूप से अनुशासित राज्यों को भुगतना पड़ेगा। आंध्र प्रदेश सरकार ने कहा है कि ये सिफारिशें नए राज्य को बुरी तरह से प्रभावित करेंगी। उसका कहना है कि बदली परिस्थिति में केंद्रीय संसाधनों के प्रत्येक 100 रुपये में से 68 की जगह अब राज्य को 62 रुपये ही मिल पाएंगे। तेलंगाना की राय भी आंध्र से मिलती-जुलती हुई है।
राज्य के वित्तीय सलाहकार जी आर रेड्डी ने कहा है कि ‘एक हाथ से जो दिया जा रहा है, उसे दूसरे हाथ से ले भी लिया जा रहा है।’ कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का कहना है कि ‘अपने करों में से राज्यों का हस्तांतरण बढ़ाने का केंद्र सरकार का फैसला बजट में केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए धन में भारी कटौती से प्रभावहीन हो गई है।’ सिद्धारमैया के मुताबिक, केंद्रीय आवास योजनाओं में 14,287 करोड़ रुपये और शिक्षा में 32,912 करोड़ रुपये की कटौती का सीधा अर्थ है राज्यों पर अतिरिक्त बोझ का बढ़ना। दक्षिणी राज्य इस बात को लेकर खासे नाखुश हैं कि जनसंख्या नियंत्रण और बेहतर वित्तीय प्रबंधन के लिए उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं मिला है। अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों की दलील है कि राज्यों के संदर्भ में समानता का भाव रखना अच्छी बात है, लेकिन यदि परिवार में चार सदस्य हैं और उनमें से एक तंदुरुस्त है, तो उससे यह तो नहीं कहा जा सकता कि तुम कम खाओ!
सरकार यह सुझाती हुई लगती है कि चूंकि मजबूत भाई अपनी देखभाल में सक्षम है, सो उसे अपने लिए खुद कमाना चाहिए, न कि उसे केंद्र सरकार की मदद और अनुदान की बाट जोहनी चाहिए। संपन्न सूबे इस बात से सहमत हैं कि केंद्रीय विभाज्य पूल में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने का वित्त आयोग का फैसला महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह ‘राज्यों को अपनी योजनाओं की रूपरेखा तय करने व निगरानी की अधिक आजादी देता है।’ राज्यों को वित्तीय स्वतंत्रता मिली है, इसलिए शायद केंद्र उनसे उम्मीद भी कर रहा है कि वे अपने संसाधनों से या फिर निजी क्षेत्र से अपने लिए धन जुटाएं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)