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कला के दुश्मन

शिवसेना ने गुलाम अली के कार्यक्रम को रद्द करवाकर साबित कर दिया कि वह बौद्धिक रूप से कितनी दरिद्र पार्टी है। गुलाम अली न तो पाकिस्तान के राजदूत हैं और न ही वह कोई पाकिस्तान की वकालत करने मुंबई या पुणे...

कला के दुश्मन
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 09 Oct 2015 08:47 PM
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शिवसेना ने गुलाम अली के कार्यक्रम को रद्द करवाकर साबित कर दिया कि वह बौद्धिक रूप से कितनी दरिद्र पार्टी है। गुलाम अली न तो पाकिस्तान के राजदूत हैं और न ही वह कोई पाकिस्तान की वकालत करने मुंबई या पुणे आ रहे थे। वह तो कला के दूत हैं और सिर्फ मोहब्बत का पैगाम देते हैं। लेकिन कुछ सिरफिरे लोगों को संगीत में भी नफरत तलाशने की आदत है। गुलाम अली का विरोध करने वाले उनकी बस एक गजल सुन लें- 'हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह, हमको एक बार मुलाकात का मौका दे दे।' उनका विरोध करने वाले लोग भी तड़प न उठे, तो कहिएगा। मगर हम अपने दिमाग को इतना बंद कर चुके हैं कि हम यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि किसका विरोध करना चाहिए और किसका नहीं। दरअसल, ये कला के दुश्मन हैं। इनका मकसद सिर्फ और सिर्फ नफरत की खेती है।
मान्या सिंह, दाऊदपुर कोठी, मुजफ्फरपुर

फूहड़ मनोरंजन

फिल्मों और टीवी चैनलों से प्रसारित फूहड़ता हमारे सामाजिक ताने-बाने को नष्ट कर रही है। एक ओर सरकार पोर्न साइटों पर लगाम कसने की बात कह रही है, तो दूसरी ओर अश्लील चरित्र-चित्रण से युवा पीढ़ी को पतन की ओर जाते हुए चुपचाप देख रही है। परिणामस्वरूप, यौन हिंसा और दुराचार के मामले बढ़ रहे हैं। पहले फिल्मों से समाज को सकारात्मक प्रेरणा मिलती थी, मगर आधुनिक फिल्में सिर्फ हिंसा और अश्लीलता की संवाहक रह गई हैं। ओछे टीवी कार्यक्रमों से न देश का भला हो सकता है और न समाज का। हम नैतिक मूल्यों और आदर्श व्यक्तित्वों का अनुसरण करना सीखें।
युधिष्ठिर लाल कक्कड़, लक्ष्मी गार्डन, गुड़गांव

थाली से गायब अरहर दाल

महंगाई की दौड़ में अरहर की दाल ने सभी दालों को पछाड़ दिया है। कोई उसके आसपास नहीं है। गरीब या मध्यम वर्ग इसकी ओर आंख उठाने का साहस तो कर सकता है, परंतु इसे खरीदने का दुस्साहस नहीं कर सकता। इस दाल ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं और लोगों का दायित्व है कि वे इसे उचित सम्मान दें, इसका गुणगान करें। हमारे देश में किसी को राष्ट्रीय फल, तो किसी को राष्ट्रीय फूल माना जाता रहा है, लेकिन राष्ट्रीय दाल नहीं थी। समय आ गया है कि इसे दालों की रानी या राष्ट्रीय दाल घोषित किया जाए। लोगों को चाहिए कि वे इसकी ओर ललचाई नजरों से न देखकर आदर के भाव  से देखें। इसे खाने के बारे में कभी न सोचें।
जसवंत सिंह, नई दिल्ली

काले धन का मामला

भारतीय पूंजीपतियों का विदेशी बैंकों में बरसों से जमा काला धन वापस लाने का काम बहुत ही जटिल है। हो सकता है कि इस कार्य में कई साल लग जाए। वैसे अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी लग गया होगा कि 15-15 लाख सबके खाते में पहुंचाने का जुमला गढ़ना जितना आसान है, उससे 15 लाख गुना मुश्किल है इस काम को अंजाम देना। लेकिन इस मुद्दे ने एक बार फिर साबित कर दिया कि हमारे राजनेता किस तरह से देश और मतदाताओं को भरमाते हैं।  जिसे चुनाव के पहले लोग गंभीर रुख के तौर पर लेते हैं, वह चुनाव नतीजों के बाद प्रहसन में तब्दील हो जाता है। एक परिपक्व लोकतंत्र को ऐसे वादों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। लेकिन सच तो यह है कि हमारे देश के मतदाता बड़े भोले और मासूम हैं। वे कभी 100 दिनों में महंगाई कम करने के झांसे में आ जाते हैं, तो कभी 100 दिनों में 15 लाख की मुफ्तखोरी के लोभ में फंस जाते हैं।
आदित्य राय, दानापुर, पटना

सर्वेक्षणों की दुकान

बिहार चुनाव को लेकर इन दिनों खूब सर्वे छप रहे हैं। किसी में एनडीए, तो किसी में महागठबंधन की सरकार बन रही है। यह अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा इस्तेमाल है। चुनाव आयोग को इसका संज्ञान लेना चाहिए।
राकिया खानम, स्वाति अपार्टमेंट्स, पटपड़गंज, दिल्ली- 92

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