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नस्लवादी भेदभाव

हम भारतीय अपनी तहजीब भूल रहे हैं। बेंगलुरु में तंजानिया की युवती के साथ हुई अभद्रता इसका ताजा उदाहरण है। हमारी परंपरा अतिथि देवो भव की है। किसी के हृदय को चोट पहुंचाना हमारी संस्कृति नहीं है। जब...

नस्लवादी भेदभाव
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 07 Feb 2016 07:38 PM
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हम भारतीय अपनी तहजीब भूल रहे हैं। बेंगलुरु में तंजानिया की युवती के साथ हुई अभद्रता इसका ताजा उदाहरण है। हमारी परंपरा अतिथि देवो भव की है। किसी के हृदय को चोट पहुंचाना हमारी संस्कृति नहीं है। जब ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका में किसी भारतीय पर हमला होता है, तो हम नस्ली भेदभाव का रोना रोने लगते हैं, लेकिन हम खुद क्या कर रहे हैं? अफ्रीका के लोग भारत के साथ एक खास जुड़ाव महसूस करते हैं और यूरोप व अमेरिका की तुलना में यहां पढ़ाई करने पर उनका खर्च कम होता है, इसलिए बड़ी संख्या में वे यहां पढ़ने के लिए आते हैं। उन्हें लगता है कि पश्चिम की तुलना में भारत में ज्यादा सम्मान मिलेगा, पर हो उल्टा रहा है। कहने के लिए हमने भले ही रंग, जाति, नस्ल को मिटा दिया हो, पर हमारी सोच आगे जाने की बजाय संकीर्ण ही होती जा रही है। भारतीय समाज में बढ़़ती अनुदारता और हिंसा देश के लिए अच्छी बात नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो जल्द ही उन चीजों का बचना मुश्किल हो जाएगा, जिन पर हमें गर्व रहा है। हमें इस विषय में गंभीरता से सोचना होगा।
अनिल कुमार माहुरे, बमरौली कटारा, आगरा

लाचार पाकिस्तान
पाकिस्तान अपने पुराने रवैये पर कायम है कि भारत उसे बार-बार सुबूत देता रहेगा, और वह स्वयं जांच करके सारे सुबूतों को निराधार बता दुनिया को गुमराह करता रहेगा, क्योंकि उसे पता है कि भारत अति-सहनशील देश है। मुंबई ब्लास्ट के मामले में आज तक उसकी जांच खत्म नहीं हुई। स्पष्ट है, पाकिस्तान भारत को उलझाए रखना चाहता है और हमारी लचर सरकारें इंतजार करती रहेंगी। दरअसल, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सेना के आगे वहां की चुनी हुई सरकार बौनी साबित हो रही है। अब जो कुछ करना है, सिर्फ भारत को करना है, अन्यथा सीमा पर हमारे सैनिक शहीद होते रहेंगे और सरकारें अपने ढर्रे पर चलती रहेंगी। काश! वर्तमान सरकार कुछ कर सके अखंड भारत की रक्षा के लिए।
बीरेंद्र भट्ट, दिल्ली

गांधी का रास्ता
रामचंद्र गुहा ने अपने ताजा लेख में हिंसा और अहिंसा से संबंधित सार्थक विचार प्रस्तुत किए हैं। आज के युग में तो इसका महत्व और ज्यादा है। यह सच है कि विगत तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों सहित भारत में भी कुछ संगठनों ने अपनी नीति या अपनी मांगों की पूर्ति के लिए हिंसा  का रास्ता अपनाया है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। हमारी आजादी की लड़ाई के दौरान कई हिंसावादी संगठनों ने जन्म लिया और तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। हालांकि यह अभी तक वाद-विवाद का विषय बना हुआ है कि आजादी के आंदोलन में गांधी की सोच ठीक थी या नेताजी की, लेकिन इतिहास गवाह है कि अंतत: गांधी का अहिंसा-मार्ग ही सफल हुआ। यह मार्ग अब भी प्रासंगिक है। छोटे-बड़े हर अतिवादी संगठन को बंदूक छोड़ शांतिपूर्ण तरीका अपनाना चाहिए।
रमेश सिन्हा, गुड़गांव
ramesh_sinha04@yahoo.com


शाह की ताजपोशी
अमित शाह दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हो गए हैं। पहली बार मनोनयन से अध्यक्ष बने शाह इस बार निर्विरोध रूप से पार्टी की कमान संभाल रहे हैं। बुजुर्ग नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी के शीर्ष पद पर अमित शाह के निर्वाचन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह निर्वाचन ऐसे समय में हुआ है, जब पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की रणभेरी बजने वाली है। पार्टी भले दावा कर ले कि शाह के नेतृत्व में भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी, लेकिन पार्टी का स्वरूप धीरे-धीरे बदल रहा है। वाजपेयी, आडवाणी, जोशी के नेतृत्व वाली भाजपा राजनीतिक सफलता के लिहाज से छोटी भले रही, लेकिन उसकी तारीफ विरोधी भी करते थे। ऐसे में, शाह का दूसरी बार पार्टी अध्यक्ष बनना चुनौतियों का ऐसा ताज है, जिसे संभालना आसान नहीं।
शुभम सोनी, इछावर, मध्य प्रदेश

 

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