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सबको मिले शिक्षा

जब शिक्षा सबके लिए होनी चाहिए, तब यह सिर्फ उन लोगों के लिए होकर रह गई है, जो अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दे सकते हैं। पर उनका क्या, जो इतना कमाते ही नहीं कि दो वक्त की रोटी खा सकें? क्या उनके बच्चे...

सबको मिले शिक्षा
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 22 Sep 2015 09:04 PM
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जब शिक्षा सबके लिए होनी चाहिए, तब यह सिर्फ उन लोगों के लिए होकर रह गई है, जो अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दे सकते हैं। पर उनका क्या, जो इतना कमाते ही नहीं कि दो वक्त की रोटी खा सकें? क्या उनके बच्चे शिक्षा का अधिकार नहीं रखते? सर्वशिक्षा जैसे अभियान धरे के धरे रह गए हैं, क्योंकि शिक्षा सबके लिए न होकर अमीरों के लिए सीमित रह गई है। भारत में आधी से ज्यादा आबादी मध्यवर्गीय परिवार से है, जो मेहनत करके अपने बच्चों को पढ़ाते तो हैं, पर जब उच्चा शिक्षा की बात आती है, तो लोन पर निर्भर होते हैं। वहीं दूसरी ओर, ऐसे लोग भी हैं, जो मजदूरी करके अपना जीवन चलाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य को लेकर सपने भी देखते हैं, लेकिन गरीबी और महंगी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा पाते। इस तरह बच्चों को पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है। ऐसे में, सवाल उठता है कि इस तरह से भारत एक विकसित देश कैसे बनेगा?
शिवांगी सेंगर
आगरा, उत्तर प्रदेश


रोग कई, तैयारी नहीं
जब किसी आपराधिक गतिविधि की वजह से किसी एक व्यक्ति की जान चली जाती है, तो अपराधी के खिलाफ मुकदमा चलता है और उसे वाजिब सजा मिलती है। लेकिन जब किसी बीमारी से ग्रस्त एक तबका जरूरी चिकित्सा के अभाव में मौत के मुंह में चला जाता है, तो इसका दोष किसके सिर मढ़ा जाना चाहिए? देश के कई हिस्सों में बनी ऐसी स्थिति से मन में यह सवाल आना लाजमी है। बरसात खत्म होते ही डेंगू व स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियां जिस तरह समाज में अपना पांव पसारती हैं, वह एक चिंता का विषय है। दिल्ली में डेंगू से हुई 20 से ज्यादा मौतें न सिर्फ लोगों के बीच डेंगू के प्रति कम जागरूकता को प्रदर्शित कर रही हैं, बल्कि प्रशासन के कामकाज के ढीले रवैये की ओर भी इशारा करती हैं। ऐसी मौसमी बीमारियों के बढ़ते ही सरकारी अस्पतालों की असलियत लोगों के सामने आ जाती है। अस्पतालों में बिस्तर और दवाओं की किल्लत इस कदर बढ़ जाती है कि बहुत से लोग प्राथमिक उपचार से वंचित रह जाते हैं। जब पहली बार दिल्ली डेंगू के चपेट में आई थी, तब भी स्थिति आज से बहुत अलग नहीं थी। तब भी बिस्तरों की कमी थी और आज भी यह दिक्कत है। तब भी मरीजों तक दवाइयां पहुंच नहीं पा रही थीं, आज भी कुछ यही तस्वीर है।
शुभम श्रीवास्तव
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश


हॉकी और लोकप्रियता
भारत में क्रिकेट के मुकाबले बाकी खेल बहुत पीछे हैं। यह देखने को मिला एचआईएल की नीलामी में। भारतीय हॉकी टीम के कप्तान को उतने पैसे भी नहीं मिले, जितने आईपीएल में एक अनजान क्रिकेटर को मिल जाते हैं। हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद लोगों के दिलों में क्रिकेट जितनी जगह नहीं बना पाई है। बाजार भी क्रिकेट की तरफ ज्यादा मेहरबान दिखता है। यह बुरा नहीं है कि लोग क्रिकेट के दीवाने हैं। लेकिन कुछ ऐसा भी होना चाहिए कि भारत के इस पुराने खेल को भी लोग पसंद करें और भारी संख्या में उसको समर्थन दें। 
कफील अहमद फारूकी
गिलौला श्रावस्ती, उत्तर प्रदेश


क्या बिहार जीतेगा
कई सामाजिक और जातीय समूहों में बंटा बिहार आज राजनीति के उस पथ पर है, जहां से दो मार्ग फूटते हैं। एक, जो सत्तारूढ़ गठबंधन की तरफ जाता है और कथित रूप से सेक्युलर है और दूसरा, उनकी राह है, जो अभी राज्य में विपक्ष की राजनीति करते आ रहे हैं और केंद्र की सत्ता में आ चुके हैं, ये कथित रूप से सांप्रदायिक हैं। एक तरफ, 'एमवाई' समीकरण का हल्ला है, तो दूसरी तरफ, हिंदू और अगड़ी जातियों की लामबंदी का जोर है। लेकिन ये दोनों मार्ग न तो बिहार को जिताते हैं और न ही इस प्रदेश के लोगों को। बिहार तो तभी जीतेगा, जब वह अपनी जड़ता से मुक्त होगा। क्या मतदाता इसके लिए तैयार हैं? बिहार की असली परीक्षा अब आ चुकी है।
दिलीप
उत्तम नगर, दिल्ली

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