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शिक्षा की अलख

शिक्षा की अलख  आजकल पार्टियों की ओर से जो घोषणा-पत्र जारी किए जा रहे हैं, उनमें स्मार्टफोन, कुकर, लैपटॉप जैसी ललचाने वाली वस्तुएं शामिल हैं। मगर समाज की सबसे बड़ी जरूरत शिक्षा है, और इस ओर किसी...

शिक्षा की अलख
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 12 Feb 2017 09:22 PM
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शिक्षा की अलख 
आजकल पार्टियों की ओर से जो घोषणा-पत्र जारी किए जा रहे हैं, उनमें स्मार्टफोन, कुकर, लैपटॉप जैसी ललचाने वाली वस्तुएं शामिल हैं। मगर समाज की सबसे बड़ी जरूरत शिक्षा है, और इस ओर किसी भी पार्टी का ध्यान नहीं है। अशिक्षा की वजह से ही मुफ्तखोरी बढ़ी है। गांव में सरकारी स्कूलों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। यहां अध्यापक कभी समय पर नहीं आते हैं। कोई भी इन सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ना चाहता है। पिछले एक दशक से शिक्षा का निजीकरण बढ़ा है। अगर सरकार ने देहातों की ओर भी ध्यान दिया होता, तो शिक्षा पर ठेकेदारों का वर्चस्व कायम नहीं होता। रोज महंगी होती शिक्षा में गरीबों का शिक्षित हो पाना असंभव-सा हो गया है। लगता यही है कि सभी सरकारें अंगूठा छाप साक्षरों की फौज खड़ी करने में दिलचस्पी रखती हैं। नहीं तो, उनके बेतुके वायदों में कौन फंसेगा?
चंद्रकांत, एएमयू

ऑनलाइन धोखाधड़ी
अब तक केवल ऑनलाइन शॉपिंग में धोखाधड़ी के मामले सामने आते थे, मगर नोएडा में एक कंपनी द्वारा लाखों लोगों को एक साथ ठगने की घटना सामने आई है। इसीलिए ऑनलाइन जालसाजी के बढ़ते खतरे के प्रति हमें चेत जाना चाहिए। यह घटना अपने आप में अनूठी है, जिसमें ठगी के सूत्रधारकों ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को अपना शिकार बनाया। यह धोखाधड़ी इस बात को भी दर्शाती है कि बढ़ती महत्वाकांक्षा और तड़क-भड़क भरी जिंदगी जीने के शौकीन लोग किस तरह सीधे-साधे लोगों को बेवकूफ बनाकर उनकी जिंदगी भर की कमाई हड़प लेते हैं। वैसे जरूरत यह भी है कि हम भी सचेत व सतर्क रहें। 
अनुपमा अग्रवाल, अलीगढ़

खेलोगे तो बनोगे
अपने देश में गुरुकुल व्यवस्था के समय खेल-कूद को सर्वांगीण विकास का प्रमुख कारक माना जाता था। समय बदलने के साथ-साथ व्यवस्था बदली और विद्यालय व्यवस्था अपने साथ ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब’ जैसा जुमला ले आई। हर अभिभावक अपने बच्चों को पढ़़ाई के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए इसका इस्तेमाल करने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारे देश में खेल का माहौल लगभग खत्म हो गया। अब अच्छी बात यह है कि यह मानसिकता बदल रही है। मगर अब भी हमें लंबा सफर तय करना है। जरूरी है कि लोग जागरूक बनें।
प्रीति दुबे, दिल्ली विश्वविद्यालय

नेताओं की करस्तानी
वैसे तो हमारे देश को आजाद हुए लगभग 70 बरस हो चुके हैं। मगर जनता की सोच को आजादी शायद अभी तक नहीं मिल पाई है। तभी तो तमाम नेताओं ने विकास को कम और धर्म व जाति से जुड़े मुद्दों को अपना सफल चुनावी एजेंडा बना लिया है। मैं इसमें नेताओं को दोष नहीं देता हूं, क्योंकि जब तक जनता जाति या धर्म के नाम पर वोट करती रहेगी, यह स्थिति नहीं बदलेगी। भले ही सर्वोच्च न्यायालय लाख पाबंदी लगा ले, पर राजनेता कोई न कोई विकल्प ढूंढ़ ही लेंगे। और वही हो भी रहा है। जनता को अब समझना चाहिए कि संविधान ने उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी दी है, तो वे इसका फायदा उठाएं और मतदान में जातिगत या धार्मिक भेदभाव न करें।
फहद हयात, मेरठ

सत्ता की मलाई
राजनीतिक दल जब सत्ता में आते हैं, तो वे चाहते हैं कि उन्हें उनकी मर्जी से काम करने दिया जाए; भले ही वह समाज में अलगाव पैदा करने वाला हो। वहीं, जब विपक्ष में आते हैं, तो सत्ता पक्ष की हर बात का विरोध शुरू कर देते हैं; फिर चाहे बात देशहित की ही क्यों न हो। गजब का विरोधाभास है। इसी का नतीजा है कि हमारा देश विकास की राह तकते-तकते विकार ग्रस्त हो गया है। क्या जनता चुपचाप इन सब चीजों को देखती रहेगी?
मोनिका अग्रवाल, मुरादाबाद

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