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अनन्य हैं आशापूर्णा देवी

महीयसी आशापूर्णा देवी की जन्मशती 8 जनवरी 200ो पूरी हो रही है। इस अवसर पर एक गरिमामय अनुष्ठान करने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है। मुझे भी उसका एक सदस्य बनाया गया है। आशा दी से मेरा अंतरंग सम्पर्क...

 अनन्य हैं आशापूर्णा देवी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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महीयसी आशापूर्णा देवी की जन्मशती 8 जनवरी 200ो पूरी हो रही है। इस अवसर पर एक गरिमामय अनुष्ठान करने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है। मुझे भी उसका एक सदस्य बनाया गया है। आशा दी से मेरा अंतरंग सम्पर्क था। अपने जीवन की अनेकानेक बातें उन्होंने मुझे बताई थीं। कोलकाता के एक संस्कृतिवान व सुशिक्षत परिवार में 8 जनवरी 10ो जन्मी आशा दी को किसी स्कूल-कॉलेज में पढ़ने का सुयोग नहीं मिला। उन्होंने बताया था, ‘पर घर पर अध्यापन करने की छूट थी।’ 11 वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी हो गई थी। ससुराल में पति ने लिखने-पढ़ने की पूरी छूट दी। गोलपार्क वाले अपने घर में एक बार बातचीत करते हुए उन्होंने मुझसे कहा था, ‘पता है, महाश्वेता, यह सवाल मुझसे प्राय: किया जाता है कि मैं साहित्य में कैसे आइ्र्र? दरअसल 13 साल की उम्र में हठात् मन में उमंग उठी कि कुछ लिखूं। मैंने कविता लिखी और उसे एक बाल पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया। वह रचना यदि नहीं छपती तो शायद आगे लिखने का उत्साह मंद पड़ जाता पर उस पत्रिका ने न सिर्फ कपिता छापी, आगे और लिखने का भी आग्रह किया। दूसरी पत्रिकाओं से भी आग्रह आने लगे। 15 साल की उम्र में एक साहित्यक प्रतियोगिता में मुझे प्रथम पुरसकार मिला तो लिखने का उत्साह और बढ़ गया।’ पहली रचना छपने के बाद पांच दशक बाद तक संपादकों ने आशा दी से लगातार रचनाएं मंगवाईं। उनकी कोई रचना कभी अस्वीकृत नहीं हुईं। पूजा विशेषज्ञों में उनकी अनिवार्य उपस्थिति होती। वे हमेशा लिखने में रत रहीं। वे अक्सर कहतीं, ‘एक कट्टरपंथी परिवार में रहते हुए भी मुझे लिखने से न कभी रोका गया, न हतोत्साहित किया गया। इसे मैं अपना अहोभाग्य मानती हूं। मैंने भी घर-गृहस्थी को सबसे ज्यादा महत्व दिया।’ हालांकि साहित्यिक जीवन उनके लिए अत्यंत मूल्यवान था। आशा दी के सृजन की अंतर्वस्तु समाज का आम आदमी और वे असहाय और पीड़ित लोग हैं जिनका जीवन घटनाशून्य हो गया है। आशा दी के मन में जो शाश्वत सवाल अक्सर कौंधता, वे थे- आदमी और आदमी के बीच इतनी फांक क्यों है? समाज में असमानाएं क्यों हैं? मुट्ठीभर ताकतवर लोगों पर यह धुन क्यों सवार है कि वे दुनिया पर राज करं? उन्होंने एक बार मुझसे कहा था, ‘पता है महाश्वेता, हमारा समाज पुराणों के अनुचित कृत्यों को बर्दाश्त कर लेता है किन्तु स्त्रियों को मामूली सी भूल के लिए भी कठोर दंड दिया जाता है। यह भेदभाव क्यों है? जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री को अधिकारों से क्यों वंचित रखा गया है?’ आशा दी को रूढ़िग्रसत परिवार में जीवन बिताना पड़ा, इसलिए उन्होंने स्त्री की असह्य अवस्था को, पीड़ा को शिद्दत से महसूस किया और विचलित मन से उसे अभिव्यक्त किया। उन्होंने हर बड़े सवाल को सड़क-चौराहे पर खड़े होकर नहीं, घर की चारदिवारी में बैठकर देखा और हर बड़ी समस्या को चारदिवारी के अंदर रखकर उसका समाधान प्रस्तु किया। स्त्री के साथ इस पितृ सत्तात्मक समाज में विभेद होने के सवाल ने आशा दी को न सिर्फ विचलित किया था, उनके भीतर प्रतिवाद का पहाड़ खड़ा किया था। उसी पहाड़ की झलक ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ की नायिका ‘सत्यवती’ में पाई जा सकती है। दरअसल ‘सत्यवती’ को आशापूर्णा देवी के मन के मौन प्रतिवादों का प्रतीक मानना ही उचित है। ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ आशा दी की कथा त्रयी की पहली कड़ी है। उसके बाद की दो कड़ियों- ‘सुवर्णलला’ और ‘वकुलकथा’ एक दूसर की पूरक हैं और इन तीनों औपचारिक कृतियों के जरिए आशा दी ने विगत, मध्य व वर्तमान काल की तीन पीढ़ियों के सामाजिक इतिहास के चरणों को उद्घाटित किया। इन तीनों कृतियों से साफ है कि उनके मन की आँख में सर्चलाइट थी। मूल्यों का संकट और पीढ़ियों का टकराव जसी समस्याओं पर उन्होंने नई व्यवस्था दी है। उनकी सारी की सारी स्थापनाएं भारतीय मर्यादा और प्रदत्त पारिवारिक ढांचे के अनुकूल हैं। वे स्त्री के आत्मसम्मान के लिए तो लड़ती हैं पर आधुनिकता के नाम पर स्त्री के द्वारा पारिवारिक मर्यादा को लांघने का समर्थन कभी नहीं करतीं। ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ पर आशा दी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। उस कृति से जो जंग उन्होंने आरंभ की वह ‘वकुल कथा’ आते-आते तेज हो गई। समाज की सड़ी-गली मान्यताओं पर आशा दी ने चोट करना जारी रखा। उनकी यही चेतना ‘गाछेर पाता नीत’ की सुनंदा और मीनाक्षी की लड़ाई में मुखर हुई है। अपनी या समस्त नारी जाति की हार या कुंठा को कबूल करने के बजाय आशा दी बताती हैं कि स्त्री पराजय स्वीकार नहीं करती, अपना पथ स्वयं निर्मित करती है। एक सौ तेरह उपन्यासों और तेईस कहानी संग्रहों की रचयिता आशा दी ने भाव और अंतर्वस्तु के साथ शिल्प व कथा की नई जमीन बनाई और उसी बूते वे गुरुदेव, शरद चंद्र, विभूति भूषण बंधोपाध्याय के समकक्ष वे रखी जाती हैं। आशा दी इसलिए भी विरल व विलक्षण हैं क्योंकि समाज के द्वंद्व व संघर्ष, जुगुप्ता व लिप्सा को अपने पात्रों के माध्यम से उन्होंने एक नया प्रस्थान प्रदान किया। असंख्य नारी पात्रों के जरिए जिस मनोदशा का चित्रण उन्होंने किया, वह अनन्य है।

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