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टू बेबी, वन बेबी.. और अब नो बेबी

रिश्तों के मामले में पहले से ज्यादा संवेदनशील होते हुए भी फैमिली प्लानिंग के मुद्दे पर युवाओं की सोच और स्टाइल दोनों में व्यापक बदलाव देखने को मिल रहा है। यही वजह है कि चाइल्ड सेंट्रिक होने के बावजूद...

टू बेबी, वन बेबी.. और अब नो बेबी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 12 Jul 2009 01:25 PM
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रिश्तों के मामले में पहले से ज्यादा संवेदनशील होते हुए भी फैमिली प्लानिंग के मुद्दे पर युवाओं की सोच और स्टाइल दोनों में व्यापक बदलाव देखने को मिल रहा है। यही वजह है कि चाइल्ड सेंट्रिक होने के बावजूद भारतीय समाज में अपनी इच्छा से बच्चे नहीं चाहने वाले युवा दंपत्तियों की संख्या तेजी से बढ़ी है और उससे भी तेजी से अपने करियर और व्यक्तिगत आजादी में सबसे अधिक यकीन रखने वाली महिलाओं में चाइल्ड फ्री रहने की चाह बढ़ रही है। इतना ही नहीं मातृत्व को ही स्त्री जीवन की सार्थकता मानने वाले लोगों की सोच पर उनके कई सवाल हैं।

फैंटासिया4एवर नामक ब्लॉग में एक मिस्र् ब्लॉगर लिखती हैं, इजिप्ट में शादी के बाद महिलाओं का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। शादी के बाद वाले दिन से ही पूरे घर परिवार की नई वधू की ओर उठी हुई नजर घर में नन्हा मेहमान कब आएगा प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमती प्रतीत होती है। माता-पिता, सास-ससुर, भाई-बहन, दोस्त, आस-पड़ोस, ऑफिस में काम करने वाले लोग सभी इसी प्रश्न के जवाब की प्रतीक्षा करते दिखाई देते हैं। सभी की कामना रहती है कि महिला को प्रकृति से प्राप्त यह भूमिका और दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उनके इस दायित्व की पूर्ति महिला द्वारा जल्द से जल्द पूरी कर दी जाए। वैसे यह स्थिति भारतीय समाज में भी बहुत अलग नहीं है। बचपन में अक्सर छोटे-गुड्डे गुडि़यों का मां समान ध्यान रखना और उनकी शादी करने का खेल बेहद सामान्य तरीके से आगे चलकर लड़कियों का अपना जीवन बन जाता है। बड़ी संख्या में अभी भी महिलाएं पारिवारिक भूमिका तक ही सीमित हैं और बच्चा उनके  शादीशुदा जीवन का एक स्वाभाविक और अहम अंग है। बावजूद इसके नई पीढी की महिलाएं मां बनने को ही स्त्री जीवन की पूर्णता या इसके बिना खुद को अधूरा मानने को तैयार नहीं है।

अधूरापन या आजादी
करियर की बुलंदियों को छू रही महिलाएं पारिवारिक जिम्मेदारियों तक ही खुद को सीमित नहीं देखती। वह अपने करियर और व्यक्तिगत आजादी को भी उतनी ही तरजीह दे रही हैं। कई मामलों में उसे अपने फैसले में अपने ही समान सोच रखने वाले पति का साथ भी मिल रहा है। करियर, तनाव मुक्त या मनोरंजन कोई भी कारण हो, नए जोड़े आपसी सहमति से बड़ी उम्र में शादी, शादी के कुछ सालों तक नो चाइल्ड और परिवार को सीमित रखने संबंधी फैसले ले रहे हैं। पर जहां तक महिलाओं में चाइल्ड फ्री रहने की बढती सोच का सवाल है, उस पर नोएडा में एक मल्टीनेशनल फर्म में काम कर रही 32 वर्षीय स्वाति कहती हैं, भारत में महिलाओं में चाइल्ड फ्री रहने का ट्रेंड प्रारंभिक अवस्था में ही है। यह ट्रेंड बड़े महानगरों और फिलहाल आर्थिक रूप से सबल और महत्वाकांक्षी महिलाओं में ही देखने को मिल रहा है। अन्यथा, महिला किसी भी ऊंचे पद पर आसीन क्यों न हो, उसकी पूर्ण सफलता को उसके मां बनने की भूमिका से जोड़कर ही देखा जाता है। कई तरह के प्राकृतिक और सामाजिक दबाव बच्चे के जन्म की इच्छा पर काम करने लगते हैं। यही कारण है कि गर्भ निरोधक दवाओं की भूमिका महिलाओं को अपने अनुसार फैमिली प्लानिंग करने और करियर की राह चुनने तक सीमित रखने में ही सफल रही हैं,अपने शरीर पर पूरी आजादी के रूप में नहीं।

30 वर्षीय, अविवाहित सृष्टि, मैनेजमेंट की बुलंदियों को छूना चाहती हैं। इंजीनियरिंग और एमबीए करने के बाद एक कॉरपोरेट फर्म में एसोसिएट मैनेजर के पद पर कार्यरत सृष्टि कहती हैं ‘आने वाले समय में महिलाओं में चाइल्ड फ्री रहने की विचारधारा और भी जोर पकड़ेगी, समाज को इसे महिलाओं की वैध इच्छा के रूप में देखना चाहिए। इसे टैबू या वर्जित बनाए रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह महिला और पति-पत्नी की आपसी समझ और इच्छा पर निर्भर करता है कि उन्हें बच्चे की जरूरत है या नहीं।

जब बच्चा होता है, तो कोई माता-पिता से यह नहीं पूछता कि बच्चा क्यों है?  पर चाइल्ड फ्री होने की इच्छा पर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। ऐसा सही है, परिवार की तरफ से इस तरह की अपेक्षाएं रहती ही हैं। पर सबकुछ निर्भर करता है पति-पत्नी की आपसी समझ और परिपक्वता पर। गुड़गांव के एक कॉल सेंटर में काम करने वाली 32 वर्षीय ऑल्विया कहती हैं, मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं, उनके साथ समय बिताना पसंद है, पर जहां तक मेरा सवाल है, मैं खुद को चाइल्ड फ्री देखना ही पसंद करती हूं। मेरा बच्चों से किसी प्रकार का दुराव नहीं है और ना ही मेरा किसी भी सामाजिक जिम्मेदारी से भागने का प्रयास है। मेरी राय में यह महिला की अपनी पसंद है, जो खुद को बच्चों की जिम्मेदारियों से दूर रखते हुए अपनी आजादी, पैसा और ऊर्जा का उपयोग अपने लिए ही करना चाहती है। इसमें अस्वाभाविक जैसा या फिर वर्जित जैसा कुछ नहीं है।

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमार नो बेबी को महज महिला की इच्छा भर मानने को तैयार नहीं है। उनके अनुसार मातृत्व महिला की क्षमता और शक्ति है। महिलाएं इससे परिचित हैं और उसे छोड़ने को लेकर किसी तरह का आग्रह भी नहीं है। पर यह कई महिलाओं के लिए मजबूरी है, जो घर-परिवार द्वारा उनकी जिम्मेदारियों को बांटने का प्रयास नहीं करने में भी छुपी हुई है। कई ऐसी लड़कियां हैं, जो मात्र परिवार खासतौर पर पति से बच्चों की जिम्मेदारियों को शेयर करने का सपोर्ट नहीं मिल पाने के कारण अपने सपने पूरे करने से रह जाती हैं।

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