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मंशा साफ हो तो समाधान भी निकले

काले धन का मुद्दा फिर सुर्खियों में है। इंडियन एक्सप्रेस की एक पत्रकार ने एचएसबीसी के लगभग 1,200 खाताधारकों और उनके खातों में 25,420  करोड़ की रकम होने का खुलासा किया है। मेरी नजर में यह सिर्फ...

मंशा साफ हो तो समाधान भी निकले
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 09 Feb 2015 08:55 PM
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काले धन का मुद्दा फिर सुर्खियों में है। इंडियन एक्सप्रेस की एक पत्रकार ने एचएसबीसी के लगभग 1,200 खाताधारकों और उनके खातों में 25,420  करोड़ की रकम होने का खुलासा किया है। मेरी नजर में यह सिर्फ शुरुआत है। जो लोग देश से पैसा बाहर ले जाते हैं, उनकी तादाद लाखों में है। इस तरह से धन देश से बाहर ले जाने को ‘फ्लाइट ऑफ कैपिटल’ कहते हैं और इस काम में कारोबार जगत के लोगों के अलावा, राजनेता, नौकरशाह और दूसरे क्षेत्रों के रसूखदार लोग भी शामिल हैं। यह तो सिर्फ एक बैंक की बात है। एचएसबीसी के अलावा स्विट्जरलैंड के यूएसबी, रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड जैसे कई सारे बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान हैं, जिनमें दुनिया भर के लोगों का काला धन जमा है। इन बैंकों में कई लाख करोड़ रुपये जमा हैं। अब कितने भारतीयों के खाते इनमें हैं और उनमें किसकी कितनी रकम जमा है, इसका पता लगाना बहुत बड़ा काम है।

आपको सही व्यक्ति से संपर्क साधना होगा। दुनिया के करीब 90 देश ‘टैक्स हैवन’ बताए जाते हैं। ऐसे में, उनके यहां के छोटे-बड़े एक-एक वित्तीय संस्थानों की पड़ताल करना, उनसे जानकारियां जुटाना श्रमसाध्य काम है। मगर  इच्छाशक्ति हो, तो यह कोई नामुमकिन कार्य भी नहीं है। काले धन की समस्या भारत तक ही सीमित नहीं है। दुनिया भर के विकसित व विकासशील देशों के लोग टैक्स हैवन देशों के बैंकों का लाभ उठाते रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में उनके खिलाफ जन दबाव बढ़ा है और उसके कारण सरकारों को ठोस पहल करनी पड़ी है। कई देशों ने, जैसे अमेरिका, लिस्टेनटाइन, लक्जमबर्ग जैसे देशों में इससे जुड़े लोगों के नाम खुलासे किए हैं। लेकिन काले धन को लेकर सबसे अधिक सक्रियता यूरोपीय देशों ने दिखाया है।

जर्मनी और फ्रांस की सरकारों ने तो इस मामले में काफी सख्त रुख अपनाया है। उन्होंने तो इन बैंकों से कई लाख नाम हासिल किए हैं। हमारी सरकार को भी फ्रेंच अधिकारियों ने ही एचएसबीसी खाताधारकों के नाम बताए थे।
मैं यहां यह साफ कर देना चाहता हूं कि विदेशी बैंकों में खाता रखने वाले सभी लोग अपराधी नहीं हैं। कारोबारियों को तो दुनिया भर में इसकी जरूरत पड़ती ही है। जिन लोगों टैक्स चोरी की है या सरकार को बगैर कोई सूचना दिए विदेशी बैंकों में अपना धन जमा कराया है,  उनके खिलाफ मामला बनता है। आवश्यकता है, ऐसे लोगों की जानकारी जुटाने और उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने की। लेकिन दुर्योग से काले धन को लेकर हमारे यहां कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखती। 1948 से ही इसे लेकर पहलकदमी का दिखावा होता रहा है। अब तक तीन दर्जन से अधिक समितियां, आयोग व जांच दल आदि गठित हो चुके हैं, लेकिन उनसे कोई बहुत मदद नहीं मिली।

सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद एसआईटी तक गठित हो चुकी है। लेकिन एसआईटी भी क्या करेगी? उसे अपने काम में जिनकी मदद चाहिए, वे महकमे, जैसे इनफोर्समेंट डिपार्टमेंट, सीबीडीटी आदि तो सरकार के निर्देश पर ही काम करते हैं। काला धन के मामले में हमारे देश की सरकारों की उदासीनता का अंदाज इसी बात से लग जाता है कि एचएसबीसी के खाताधारकों के नाम सरकार के पास साल 2011 से ही मौजूद थे,  मगर उसने कोई कठोर कदम नहीं उठाया। उसने अपनी तरफ से नए नाम जानने का कोई प्रयास नहीं किया। कितनी हास्यास्पद बात है कि एक पत्रकार तो सूचनाएं हासिल कर सकता है, मगर सरकारों को इसमें मुश्किलें दिखाई देती हैं।

साल 2011 में जितने नामों की सूची सरकार को मिली थी,  उससे करीब दोगुनी संख्या में नाम अब सामने आए हैं। आखिर यह क्या साबित करता है?  सरकार ने कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया। बैंकिंग सीक्रेसी से जुड़े नियमों में कोई तब्दीली नहीं की गई। सरकार ढिलाई बरतती रही। दरअसल, सरकार चाहे यूपीए की रही हो या फिर एनडीए की, वे काले धन के मामले में इस वजह से सक्रियता नहीं बरततीं,  क्योंकि इससे सरकार में शामिल पार्टियों को चुनावी फंडिंग करने वाले कारोबारियों के हित टकराते हैं। राजनेताओं और तमाम पहुंच वाले लोगों का इससे गहरा रिश्ता है। इसीलिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के बगैर इस मामले में बहुत कुछ ठोस हासिल नहीं हो सकता।

वैसे,  विदेश में जमा धन को लेकर जितनी हाय-तौबा मचाई जाती रही है, उससे कुछ कम गंभीर चुनौती देश के भीतर का काला धन नहीं पेश करता है। मेरा अब भी मानना है कि विदेश में तो सिर्फ दस फीसदी काला धन जमा है। 90 प्रतिशत काला धन तो हमारे देश के भीतर ही है। काले धन की यह अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे बढ़ेगी, देश के बाहर जाने वाले धन की मात्रा भी बढ़ेगी। यह स्थिति देश की अर्थव्यवस्था के लिए काफी नुकसानदेह है।

दरअसल, काले धन के खिलाफ मुहिम को बल जन-दबाव से ही मिलता है। याद कीजिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ जब अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन हुआ, तो देश के राजनीतिक वर्ग की शुरुआती प्रतिक्रिया कैसी थी? जब राजनीतिक वर्ग को लग गया कि इस मांग को अब और लटकाया नहीं जा सकता, तब जाकर सरकार ने लोकपाल बिल पारित किया। हमारे यहां जन-सरोकार के मुद्दों पर सरकारों का रवैया अक्सर टाल-मटोल वाला ही होता है। जिस देश में कई मुख्यमंत्रियों के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति धन इकट्ठा करने का मामला चल रहा है, कई बड़े नेता व वरिष्ठ अधिकारी जेल की हवा खा चुके हैं, वहां यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि काले धन के पोषकों और संरक्षकों का गठजोड़ कितना मजबूत है।

पिछले दिनों नीरा राडिया टैप खुलासे ने इस गठजोड़ की व्यापकता का खुलासा किया ही था। इसलिए जब तक राजनीतिक नेतृत्व के भीतर यह इच्छाशक्ति नहीं पैदा होती कि काले धन की अर्थव्यवस्था की धार को हर कीमत पर कुंद करना है,  तब तक समस्या का समाधान मुश्किल है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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