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नई आर्थिक चुनौतियों की दस्तक

नया साल आ गया। ऐसे मौकों के लिए विंस्टन चर्चिल ने हमें चेताया था,  ‘आगे की ओर देखना हमेशा बुद्धिमानी भरा होता है,  लेकिन जहां तक आप देख सकते हैं,  उससे आगे देखना हमेशा मुश्किल...

नई आर्थिक चुनौतियों की दस्तक
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 01 Jan 2015 08:42 PM
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नया साल आ गया। ऐसे मौकों के लिए विंस्टन चर्चिल ने हमें चेताया था,  ‘आगे की ओर देखना हमेशा बुद्धिमानी भरा होता है,  लेकिन जहां तक आप देख सकते हैं,  उससे आगे देखना हमेशा मुश्किल होता है।’  पिछला साल हमें कुछ महत्वपूर्ण बदलाव देकर गया है। पहला,  हमारे पास एक निर्णायक नेतृत्व के साथ मजबूत,  स्थिर व विश्वसनीय सरकार है। खंडित गठबंधन राजनीति का युग फिलहाल पीछे छूट गया है। लोकसभा में बहुमत सतारूढ़ पार्टी के लिए निर्णायक साबित हुआ है। राज्यसभा में सत्तारूढ़ पार्टी के पास बहुमत नहीं है और यहां दूसरे दलों का सहारा लेना चुनौती रहेगा। आने वाले महीनों में यहां सत्तारूढ़ पार्टी के कौशल की परीक्षा होगी। 2014 आम चुनाव में विजय के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में भी मोदी-लहर को दोहराया गया। झारखंड में मिली ताजा जीत और जम्मू-कश्मीर में निर्णायक बढ़त इसी की निरंतरता है। कुछ के अनुसार,  यह असर कम हो रहा है। ऐसे लगातार बदलावों से 2016 में ऊपरी सदन में भाजपा को मजबूती मिलेगी। दूसरा, लगता है कि आर्थिक गिरावट अब खत्म होने को है। हमने नीतिगत पक्षाघात,  पांच प्रतिशत से कम विकास दर,  अस्थिर चालू खाता घाटा,  बढ़ी हुई महंगाई,  सब्सिडी बिलों में वृद्धि और बड़ी आर्थिक स्थिरता या ढांचागत सुधारों के लिए कोई कदम न उठाने का लंबा दौर खत्म होते देखा है।

यह वित्त वर्ष 5.4-5.9  के बीच की विकास दर के साथ खत्म होगा। साथ ही,  इसका समापन महंगाई दर में कमी, प्रबंधकीय चालू खाता और निवेशकों के भरोसे की पुनर्बहाली के साथ हो गया। ब्याज दरें इस हफ्ते या फरवरी के पहले हफ्ते तक नीचे आ सकती हैं। ढांचागत सुधारों के ताजा तथ्यों में शामिल हैं- डीजल मूल्यों का विकेंद्रीकरण, प्रत्यक्ष हस्तांतरण में रसोई गैस सब्सिडी को बदलना,  कोयला क्षेत्र में सुधार और उसमें निजी क्षेत्र को लाना। इसके अलावा, प्रधानमंत्री जन-धन योजना,  स्वच्छ भारत अभियान और श्रम सुधार हैं। तीसरा,  बाहर देखें तो दुनिया एक मिली-जुली तस्वीर पेश कर रही है। जापान की अर्थव्यवस्था शिंजो एबे के दोबारा नेतृत्व के बाद भी मंदी से निकलने के लिए संघर्ष कर रही है। चीन की अर्थव्यवस्था में श्रम आधारित उत्पादन में स्पर्धा के कम होने से कुछ समय के लिए गिरावट बनी रहेगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने ब्याज दर में वृद्धि की उम्मीद के साथ तेज उछाल लिया है,  जो पूंजी के प्रवाह को बढ़ावा दे सकती है। यूरोप की अर्थव्यवस्था फिलहाल ढलान की ओर ही रहेगी। रूस और पश्चिम के बीच बढ़ता भू-राजनीतिक तनाव इसमें कई अन्य संकटों को भी पैदा कर सकता है।

चौथा,  तेल की कीमतों में आई गिरावट के साथ बदला हुआ वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य भारत पर बड़ा प्रभाव डाल रहा है। पेट्रोलियम व तेल कीमतों में आई ताजा गिरावट से राजकोषीय प्रबंधन को फायदा होगा,  विशेषकर सब्सिडी के प्रभाव को,  लेकिन यह अक्षय ऊर्जा के विकास के लिए अच्छी खबर नहीं है। वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच अपने निर्यात लक्ष्य को फिर से हासिल करना कठिन हो सकता है। इससे चालू बचत खाता भी प्रभावित हो सकता है। हालांकि, कुलजमा बाहर का माहौल कम समय में हमारे लिए फायदेमंद ही दिखता है। नियंत्रित महंगाई का इस्तेमाल अटके हुए सुधारों को बढ़ाने और सब्सिडी के पुनर्गठन के एक अवसर की तरह करना चाहिए। ऐसे में,  हम कौन-सी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं?  और क्या सबसे लाभ मिल सकता है?  पहली चुनौती है,  सामाजिक सामंजस्य के साथ तेज आर्थिक विकास को जोड़े रखना। तेजी से हो रहे शहरीकरण व पलायन के दौरान पारंपरिक मूल्यों और सांस्कृतिक पहचान का संरक्षण कई नीतिगत विकल्पों के सवालों को खड़ा करता है,  जिनके आसान जवाब नहीं होते।

दूसरी,  तेज आर्थिक विकास को हल्के में नहीं लिया जा सकता। प्रधानमंत्री और बजट,  दोनों से उम्मीदें अधिक हैं,  जो काफी हद तक अवास्तविक हैं। नीतियां और प्रक्रियाएं कार्यान्वयन से दूर हैं। आशाओं व वास्तविक चुनौतियों के बीच तालमेल न होने से अनिश्चितताएं पैदा हो सकती हैं। विपक्ष हमले की ताक में है,  इसलिए अपनी स्थिति को बनाए रखना महत्वपूर्ण है। तीसरी,  प्रशासनिक कार्रवाई से अलग नियामक ढांचों में बदलाव की जरूरत होगी,  जिससे विनिर्माण और सेवा,  दोनों क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर पैदा हों। कुछ उपाय तत्काल उठाए गए हैं,  जैसे किसी चीज की मंजूरी को समय से जोड़े रखना,  स्वीकृति को सहज बनाना,  अनुबंध से जुड़े विवादों को दूर करना,  पंजीकरण प्रक्रिया को आसान बनाना। इससे कारोबार करना आसान होगा। श्रम कानूनों में बदलावों के लिए राज्यों को प्रोत्साहित करना होगा कि वे राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों की तर्ज पर अपने यहां बदलाव लाएं। विधायी कदम देर-सबेर अवश्य कारगर होंगे।

ऐसी खबरें हैं कि बड़े विदेशी निवेशक,  जो चीन से छिटक गए हैं,  भारत की ओर देख रहे हैं। यह बताता है कि कुछ और निर्णायक कदम उठाने की जरूरत है। चौथी,  स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र को प्राथमिकता मिली है। फिर भी इसमें केंद्र और राज्यों तथा कॉरपोरेट क्षेत्रों के बीच बेहतर तालमेल की जरूरत है और निजी-सार्वजनिक भागीदारी को भी जबर्दस्त बढ़ावा देना होगा। पांचवीं चुनौती है- संसद, विशेषकर राज्यसभा को सही रूप से चलाना। सरकार के पास अध्यादेश,  इसकी घोषणाओं और संयुक्त सत्र के विकल्प हैं। लेकिन महत्वपूर्ण विधेयकों को पास करने के लिए दूसरे दलों से मदद लेने की जगह ये नहीं ले सकते। छठी,  आंतरिक सुरक्षा की चुनौती काफी जटिल है। हाल ही में असम में हुए जातीय नरसंहार,  आतंकवाद की चुनौती,  सीमा पर अशांति और कई राज्यों में माओवादी विद्रोहों को ठोस जवाब देना होगा। ऐसे में,  जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण तरीके से हुआ चुनाव सकारात्मक है।

अंतिम चुनौती है- देश के लाभ के लिए बाहर के माहौल का दोहन करना। अमेरिका,  जापान व ऑस्ट्रेलिया में निवेशकों की चाह भारत के प्रति बढ़ी है। उम्मीदों व प्रतिबद्धताओं को ठोस कदमों में बदलने के लिए हमें अपने प्रयास दोगुने करने होंगे। विदेश नीति को विदेश आर्थिक नीति में बदलने के लिए शब्दों के आडंबर से बाहर निकलना होगा। भारतवंशियों के हौसले का इस्तेमाल करना लाभदायक हो सकता है। हर नया साल नए सिरे से आशाओं और अपेक्षाओं को साथ लाता है। प्रधानमंत्री सही थे,  जब उन्होंने कहा कि ‘दुनिया भारत के लिए तैयार है,  पर क्या भारत दुनिया के लिए तैयार है?’  हमें यह साबित करना चाहिए कि हम हैं और महत्वपूर्ण चुनौतियों से लड़ने के लिए हमारे पास ठोस कदम हैं। मशहूर लेखिका जॉयस मेयर ने सही कहा है,  ‘हम तब नहीं बड़े होते,  जब चीजें आसान होती हैं,  बल्कि हम तब बड़े होते हैं,  जब चुनौतियों का सामना करते हैं।’
 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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