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सौ दिन सरकार के

किसी सरकार के लिए सौ दिन काफी कम होते हैं, खासकर ऐसी सरकार के लिए, जो केंद्र की राजनीति में सचमुच नई हो, जिसके मुखिया पहली बार सांसद बने हों और जिसके मंत्रिमंडल में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हों, जो...

सौ दिन सरकार के
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 02 Sep 2014 08:55 PM
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किसी सरकार के लिए सौ दिन काफी कम होते हैं, खासकर ऐसी सरकार के लिए, जो केंद्र की राजनीति में सचमुच नई हो, जिसके मुखिया पहली बार सांसद बने हों और जिसके मंत्रिमंडल में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हों, जो पहली बार सांसद बने हैं या पहली बार मंत्री बने हैं। लेकिन इन सौ दिनों से इस सरकार के कामकाज का तरीका और स्वभाव काफी-कुछ समझा जा सकता है, हालांकि उसके कई फैसलों के परिणाम आने में वक्त लगेगा। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के 100 दिन पूरे होने पर वैसी ही प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, जैसी अपेक्षित थीं। अगर राजनीति और विचारधारा से प्रेरित प्रतिक्रियाओं को छोड़कर इन 100 दिनों की तटस्थ समीक्षा करें, तो कहा जा सकता है कि जिन्हें मोदी से बहुत उम्मीदें थीं, वे उस हद तक पूरी नहीं हुईं और जिन्हें यह लग रहा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश का बेड़ा गर्क हो जाएगा, वैसा भी नहीं हुआ। मोदी ने अपने प्रशंसकों और विरोधियों, दोनों की भविष्यवाणियों को काफी हद तक झुठलाया है।

नरेंद्र मोदी की कार्य-संस्कृति बहुत अलग है। वह बड़ी हद तक व्यक्ति केंद्रित है और उनका दखल लगभग हर क्षेत्र में है। फिलहाल लोगों को इससे शिकायत नहीं होगी, क्योंकि बड़े दिनों बाद सरकार में चुस्ती, कार्य कुशलता और निर्णय क्षमता देखी जा रही है। अगर इसके नतीजे अच्छे आए, तो शायद जनता भविष्य में भी शिकायत नहीं करेगी, वरना हो सकता है कि असंतोष के स्वर फूटने लगे। आम तौर पर दक्षिणपंथी अर्थशास्त्रियों और उद्योगपतियों को उम्मीद थी कि मोदी अर्थव्यवस्था को और ज्यादा उदार बनाने के लिए बड़े फैसले करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। मोदी अर्थव्यवस्था के नियोजन में मध्यमार्गी साबित हुए हैं। बड़े फैसले करने की बजाय उनका ध्यान प्रशासन को चुस्त करने और लालफीताशाही कम करने में है, ताकि आर्थिक तरक्की के रास्ते में बाधाएं कम हों। भारतीय नौकरशाही के दुनिया भर में जाने-माने तौर-तरीकों और यथास्थिति से उसके मोह को तोड़ने की पहली गंभीर कोशिश अब दिखाई दे रही है।

अगर मोदी इसी रफ्तार से प्रशासन को चुस्त बनाते रहे, तो हो सकता है कि हम उतने प्रशासनिक सुधार देखें, जितने तमाम प्रशासनिक सुधार आयोग की वजह से भी नहीं हुए थे। मोदी के साथ एक अच्छी बात यह है कि वह दिल्ली के प्रशासन तंत्र से हमेशा बाहर रहे हैं, इसलिए उनका जुड़ाव इस तंत्र से नहीं है और वे तटस्थ आलोचक के रूप में उसे देख सकते हैं। इसलिए वह अनुपयोगी कानूनों की निर्मम छंटाई या योजना आयोग को खत्म करने की घोषणा कर सकते हैं। उनकी विदेश नीति में भी परंपरा से हटकर बहुत कुछ है, लेकिन आखिरकार हर नीति की असली कसौटी उसकी कामयाबी होती है। अगर पाकिस्तान और चीन के प्रति मोदी की नीति कामयाब होती है, तो उनकी वाहवाही होगी, वरना उनकी सरकार की आलोचना करने वाले कहेंगे कि हम पहले ही कह रहे थे। मोदी काफी सारी उम्मीदें जगाकर सत्ता में आए थे, लेकिन चुनावी वायदों को सच मानना कोई समझदारी नहीं होती। तब भी यह साफ था कि मोदी के पास कोई जादुई छड़ी नहीं थी और अब भी यही सच है। यह कहा जा सकता है कि इस सरकार में जो सक्रियता दिखाई दे रही है, उससे उम्मीद बंधती है, लेकिन यह भी लोग चाहेंगे कि सरकार जनता से ज्यादा संवाद करे, ज्यादा खुलापन और उदारता दिखाए। इस सरकार में स्पष्ट दिशा और निर्णय क्षमता की कोई कमी नहीं दिख रही है, लेकिन इस सरकार का असली इम्तिहान एक साल पूरा होने पर होगा, जब अर्थव्यवस्था, राजनीति और विदेश नीति में उसके कदमों के नतीजे आ चुके होंगे।

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