फोटो गैलरी

Hindi Newsरस्म अदायगी से आगे की फिक्र

रस्म अदायगी से आगे की फिक्र

अगर आपने हरे रंग से भरे इश्तेहार यहां-वहां, हर कहीं छपे न देखे हों, तो आपको बता दें। आज विश्व पर्यावरण दिवस है। 364 दिनों की अचेत नींद के बाद आज अचानक पर्यावरण प्रकट होता है। यूं ही। पर्यावरण के आ...

रस्म अदायगी से आगे की फिक्र
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 04 Jun 2014 11:01 PM
ऐप पर पढ़ें

अगर आपने हरे रंग से भरे इश्तेहार यहां-वहां, हर कहीं छपे न देखे हों, तो आपको बता दें। आज विश्व पर्यावरण दिवस है। 364 दिनों की अचेत नींद के बाद आज अचानक पर्यावरण प्रकट होता है। यूं ही। पर्यावरण के आ जाने का सबसे बड़ा लक्षण है विज्ञापन, जिनमें पृथ्वी की गेंदनुमा, हरी-नीली तस्वीर होती है। कुछ में दो हाथ हमारे नन्हे से ग्रह को संभाले होते हैं। जैसे पृथ्वी 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर की सतह वाला ग्रह नहीं, कोई आकर्षक पिल्ला हो, जिसे देखते ही वात्सल्य रस की बौछारें आ जाएं। उसे हाथ में उठा लेने को मन मचल जाए।

वैसे इस तरह के अब कई और दिन तय कर दिए गए हैं। आठ जून विश्व समुद्र दिवस है। 15 जून विश्व वायु दिवस है। 17 जून रेगिस्तान के फैलने को रोकने का दिवस है, जिसका अंग्रेजी में इतना लंबा नाम है कि उसका अनुवाद पर्यावरण मंत्रालय के हिंदी विभाग के अधिकारी भी न कर पाएं। वैसे अगर आप सरकारी हिंदी पढ़ते हों, तो पाएंगे कि इसके बावजूद अनुवाद होता है, चाहे उसका अर्थ किसी को समझ में आए या न आए। पर्यावरण के वैसे कुछ और भी दिन हैं। 22 अप्रैल तो पृथ्वी दिवस है ही, 22 मार्च विश्व जल दिवस है। विश्व नदी दिवस, विश्व जलभूमि दिवस, जनसंख्या दिवस, पहाड़ दिवस..।

आदि काल से मनुष्य अपनी दुनिया को समझने की कोशिश करता रहा है। चांद-सूरज और सितारों से लेकर सूक्ष्म जीवाणुओं तक के प्रति कौतुहल मनुष्य में रहा है। जैन दर्शन ने सदियों पहले दुनिया को सूक्ष्म जीवों का मेला बताया था, जिन्हें ‘निगोद’ संज्ञा दी गई। आज माइक्रोस्कोप के दर्शन से जो दिख रहा है, उसमें इस तरह के दर्शन का मूल्य नए तरह से समझ में आता है। आज विज्ञान के पास पहले से कहीं ज्यादा साधन हैं दुनिया को समझने के, हमारी सृष्टि की जटिलता जानने के, हमारे पर्यावरण का मर्म जानने के।

उसे पर्यावरण दिवस और पृथ्वी दिवस जैसे एक-दिवसीय कार्यक्रमों में ढालने के कुछ लाभ हो सकते हैं। लेकिन कुछ बड़े नुकसान भी हैं। पूरी पृथ्वी को हाथ में पकड़ने के चित्र के पीछे भाव यही होता है कि मनुष्य ने न केवल सारी सृष्टि पर नियंत्रण जमा लिया है, बल्कि वह हमारे ग्रह का भाग्य विधाता भी बन चुका है। माने पृथ्वी से हम नहीं, हम से पृथ्वी है। हमारे बचाने से हमारा ग्रह बचेगा। विज्ञान जो कुछ बता रहा है, वह इसके ठीक विपरीत है। पर्यावरण के लगभग हर चित्र में प्रदूषण और कचरे के रंग फैल रहे हैं।

हमारे जल स्रोत शहरों के मल-मूत्र बहाने के नाले बन चुके हैं। गंगा जैसी पवित्र मानी गई नदी में हरिद्वार और वाराणसी जैसे धार्मिक शहर भी सीवर का पानी बहाने से नहीं चूकते। वही शहर, जो नदियों से पानी निचोड़कर निकाल लेते हैं अपने इस्तेमाल के लिए। जब हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से के पास शौचालय नहीं है, तब नदियों के हाल इतने बुरे हैं। जब हर किसी के पास फ्लश वाला शौचालय होगा, तो उनके सीवर का पानी कहां जाएगा? बल्कि इतने फ्लश चलाने के लिए पानी कहां से आएगा, जबकि हमारे लगभग हर शहर के कई इलाकों में पीने के पानी की जबर्दस्त किल्लत होती है?

शहरों की हवा में गाड़ियों से निकला धुआं इतना है कि यह हजारों लोगों की मृत्यु का कारण बनता है। फिर भी अस्पताल में ये मौतें प्रदूषित हवा के खाते में नहीं आती हैं। वह इसलिए, क्योंकि दूषित हवा अपने आप में रोग नहीं है। वह दूसरे रोगों को बिगाड़ती है। फेफड़े का कैंसर और हृदयाघात जैसे कष्ट बढ़ा देती है। फिर भी विकास की हमारी परिभाषा अच्छा सार्वजनिक यातायात नहीं, चौड़ी सड़कें, ऊंचे-लंबे पुल और फर्राटेदार गाड़ियां होती हैं। उन गाड़ियों से लगातार हादसे होते हैं। दो दिन पहले ही एक केंद्रीय मंत्री की मृत्यु सड़क हादसे में हुई है। पर्यावरण पर काम करने वाली सुनीता नारायण को पिछले वर्ष साइकिल चलाते समय एक गाड़ी टक्कर मारकर निकल गई थी।

यह जरूरी नहीं है कि हमारे शहर इतने बुरे तरीके से चलें। हालत ठीक करने के लिए कई उदाहरण हैं। पंजाब के फाजिल्का शहर ने कुछ साल पहले अपने बाजारों में गाड़ियों के आने पर खुद ही प्रतिबंध लगा दिया था। यूरोप के कई शहरों ने गाड़ियों को यातायात में अवरोधक मानकर उन पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं। इसके साथ ही वहां अच्छे सार्वजनिक यातायात का प्रबंध हुआ है। हमारे शहरों में मेट्रो का आना बहुत अच्छा कदम है, लेकिन पुरानी ट्रामों को भी वापस लाने की जरूरत है। बसों का बेहतर प्रबंध भी। क्योंकि बजाय इसके कि हर कोई अपनी-अपनी गाड़ी में बैठकर ट्रैफिक जाम में फंसा हो, परिवहन का बेहतर तरीका यही है कि सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल हो।

नदियों में सीवर के माध्यम से मल-मूत्र उड़ेलना अनिवार्य नहीं है। यह संभव है कि उस पानी को साफ करने के बाद नदियों में छोड़ा जाए। लेकिन ऐसा करने की लागत लगती है। शासन और नागरिकों को यह आर्थिक भार उठाने के लिए राजी होना पड़ेगा। क्या आप यमुना और गंगा की सफाई की लागत अपने पानी के बिल में देने के लिए तैयार हैं? अगर नहीं हैं, तो ये नदियां साफ नहीं हो सकेंगी। शहरों को अपने जल स्रोतों से अपना संबंध फिर से समझना होगा। अगर सुचारु सार्वजनिक यातायात के लिए सड़क पर जगह बनानी हो, तो कारों की जगह कम करनी ही पड़ेगी।

यह सब कैसे होगा? इसका कोई तैयार जवाब नहीं हो सकता। यह तय है कि हमारे पर्यावरण से हमारा मूल संबंध हमें फिर से समझना होगा। क्योंकि नहीं समझा, तो नुकसान पर्यावरण का नहीं होगा। विज्ञान बताता है कि पृथ्वी के इतिहास में कई प्राणी हुए हैं, जिनकी सफलता और विकास उन्हीं के विलुप्त होने के कारण बन गए। मनुष्य तो हमारे ग्रह के इतिहास में बहुत ही नया प्राणी है। विकास की दौड़ में हम हर तरह के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत तेजी से भोग कर रहे हैं। उसे कचरे में बदल रहे हैं। विकास की इस तीव्र दुर्गति से नुकसान मनुष्य का ही होगा। जरूरत पृथ्वी को बचाने की कतई नहीं है। हमें अपने आप को बचाना है। अपने आप से।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें