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एफडीआई से दवा क्षेत्र में भला नहीं

पिछले दस-बारह वर्षो के दौरान देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश फार्मा क्षेत्र को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में घटा है। फार्मा क्षेत्र में करीब 57 हजार करोड़ रुपये का विदेश निवेश आया है। लेकिन यह निवेश इस...

एफडीआई से दवा क्षेत्र में भला नहीं
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 15 May 2014 01:03 PM
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पिछले दस-बारह वर्षो के दौरान देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश फार्मा क्षेत्र को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में घटा है। फार्मा क्षेत्र में करीब 57 हजार करोड़ रुपये का विदेश निवेश आया है। लेकिन यह निवेश इस क्षेत्र का भला नहीं कर पाया क्योंकि 96 फीसदी निवेश भारतीय दवा कंपनियों को खरीदने के लिए इस्तेमाल हुआ।


सरकार के भीतर इस मुद्दे पर विरोध के स्वर उठे लेकिन उसने अपनी नीति नहीं बदली और अपनी आखिरी बैठक में भी कैबिनेट ने इसी किस्म के दो सौदों को मंजूरी दी। पिछले कुछ सालों के दौरान तेजी से बड़ी भारतीय दवा कंपनियों को विदेशी कंपनियों ने खरीदा है। इनमें रैनबैक्सी से लेकर अब हैदराबाद की ग्लैंड फार्मा तक शामिल हो चुकी हैं। जबकि स्वास्थ्य मंत्रलय ने इस प्रकार के अधिग्रहण का विरोध किया था। तर्क यह था कि इससे भविष्य में सस्ती दवाएं एवं टीके महंगे हो सकते हैं।
औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग के आंकड़े देखें तो 2001 के बाद से अब तक देश में 57386 करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आया है जो सभी क्षेत्रों में सर्वाधिक है। लेकिन इसमें से सिर्फ चार फीसदी ही जो करीब 2,290 करोड़ है, ग्रीनफील्ड क्षेत्र में आया है।


यानी वह ऐसा निवेश था जो कंपनियों के अधिग्रहण के लिए नहीं बल्कि उनके विस्तार के लिए हुआ। ऐसा निवेश रोजगार बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में कारगर होता है।

जिन बड़ी कंपनियों के अधिग्रहण पिछले पांच छह सालों के दौरान हुए हैं उनमें रैनबक्सी, डाबर फार्मा, मैट्रिक्स लैब, शांता बायोटैक, आर्चिड केमिकल्स तथा पीरामल हेल्थकेयर शामिल हैं। छोटी और मझोली कंपनियों की बात करें तो एसएमएस फार्मा की कैंसर यूनिट एवं स्ट्राइड्स आकरेलैब्स के इंजेक्टेबल बिजनेस को अमेरिका की मायलान इंक ने अधिग्रहित कर लिया है।

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