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होली को बदरंग न कर दे कृत्रिम रंग!

हिंदू परंपरा के अनुसार नववर्ष की शुरुआत होली के त्योहार से होती है। इस दौरान लोग गिले-शिकवे भूल एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाते हैं और रंगों से रंग जाते हैं। इसलिए इसे लोग रंगों का त्योहार भी कहते हैं।...

होली को बदरंग न कर दे कृत्रिम रंग!
एजेंसीMon, 17 Mar 2014 11:15 AM
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हिंदू परंपरा के अनुसार नववर्ष की शुरुआत होली के त्योहार से होती है। इस दौरान लोग गिले-शिकवे भूल एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाते हैं और रंगों से रंग जाते हैं। इसलिए इसे लोग रंगों का त्योहार भी कहते हैं। लेकिन, इस त्योहार में भी अब बाजारवाद पूरी तरह हावी होने लगा है। मुनाफा कमाने की आड़ में अब कृत्रिम रंगों और गुलाल का वर्चस्व होली के बाजार में दिखने लगा है।

महाशिवरात्रि पर्व से ही शुरू होने वाली होली के महीने में चारों ओर फगुआ के गीत गूंजने लगते हैं और अबीर और गुलाल से वातावरण महका रहता है। वैसे तो बिहार के सभी इलाकों में बाजार रंगों और गुलाल से सजे हैं, परंतु इनमें अधिकांश रंग कृत्रिम होते हैं जो त्वचा के लिए नुकसानदेह होते हैं।

बुजुर्गों का कहना है कि पहले एक खास पेड़ के छाल को पीस कर पाउडर बनाया जाता था और उसे गुलाल के रूप में प्रयोग किया जाता था, वहीं टेसू और पलाश के फूलों से शुद्घ रंग बनाए जाते थे। लेकिन, अब ये बातें केवल कहानियों में ही रह गई हैं। वे कहते हैं कि टेसू तो मात्र अब साहित्य की बात हो गई है।

वे बताते हैं कि टेसू मई-जून महीने में फूलता था जिसे सुखा कर रख दिया जाता था। होली के दिनों में उन्हीं फूलों को पानी में उबाल कर रंग बनाया जाता था। अब ना ऐसा गुलाल देखने को मिलता है और ना ही ऐसा रंग ही होली में इस्तेमाल किया जा रहा है।

जानकार बताते हैं कि आज के समय में जो गुलाल बाजार में उपलब्ध हैं उसमें एसिड, स्कारलेट और कई तरह के खतरनाक रसायनिक पदार्थ मिलाए जाते हैं।

चर्म रोग विशेषज्ञ डॉ. रवि विक्रम सिंह कहते हैं कि होली के लिए बिकने वाले तमाम रंगों में ऐसे रंगों का इस्तेमाल किया जाता है जो कपड़ों के रंगने के काम आते हैं। इन रंगों का दुष्प्रभाव आंख, कान, त्वचा पर पड़ता है। वह कहते हैं कि आज होली के मौके पर बाजार में उपलब्ध अधिकांश रंग कृत्रिम होते हैं।

इधर, रंग के कारोबारी राहुल कुमार कहते हैं कि कृत्रिम रंगों का प्रचलन कोई नया नहीं हैं। वह कहते हैं कि पहले बिहार में ऐसे रंग कम होते थे। उनका कहना है कि आज होली के दिनों में अधिकांश रंग कपड़ा और प्लास्टिक रंगने वाला होता है।

वह बताते हैं कि पुराने समय में बिहार और झारखंड के लोग ना केवल टेसू के फूलों से बने रंग होली में इस्तेमाल करते थे बल्कि बिहार में नील की खेती सबसे अधिक होती थी और उससे नीला रंग तैयार होता था। इस कारण होली के मौके पर भी इन नीले रंगों का खूब इस्तेमाल किया जाता था। इस वर्ष बाजार में हर्बल गुलाल भी आ गए हैं, परंतु महंगा होने के कारण लोग इसे कम खरीद रहे हैं।

चिकित्सक कहते हैं कि कई बार चेहरे पर रंग लगने से जलन होने लगती है और इन रंगों को धोने के बाद गाल पर लाल-लाल छाले निकल जाते हैं और इनमें खुजली होने लगती है। वह कहते हैं कि इन रंगों से आंखों को क्षति पहुंचने का खतरा रहता है। चिकित्सक होली में कृत्रिम रंगों के व्यवहार से बचने की सलाह देते हैं।

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