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मदर इन ‘लॉ’

लीला सेठ न सिर्फ इसलिए याद की जाएंगी कि वह भारत के किसी हाई कोर्ट की पहली महिला जज थीं, वरन इसलिए भी याद की जाएंगी कि वह एक जुझारू और मूल्यों के लिए खड़ी होने वाली संघर्षशील शख्सियत भी थीं। अंग्रेजी...

मदर इन ‘लॉ’
भारत भारद्वाजSun, 14 May 2017 12:28 AM
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लीला सेठ न सिर्फ इसलिए याद की जाएंगी कि वह भारत के किसी हाई कोर्ट की पहली महिला जज थीं, वरन इसलिए भी याद की जाएंगी कि वह एक जुझारू और मूल्यों के लिए खड़ी होने वाली संघर्षशील शख्सियत भी थीं। अंग्रेजी के चर्चित लेखक और बेस्ट सेलर विक्रम सेठ की मां कहलाने से पहले वे स्वयं बड़ी लेखिका भी थीं। उनके न्यायिक कामों की तरह ही उनकी ‘ऑन बैलेंस’ और ‘टॉकिंग ऑफ जस्टिस : पीपुल्स राइट्स इन मॉडर्न इंडिया’ जैसी किताबें भी देर तक स्मृतियों में रहेंगी। इसी पांच मई को नोएडा स्थित आवास पर उनका निधन हो गया। स्मृति स्वरूप वरिष्ठ लेखक भारत भारद्वाज का यह आलेख और लीला सेठ की आत्मकथा से कुछ अंश : 

मृत्यु प्रकृति का अन्तर्विरोध है। इसे सहना ही होगा। मृत्यु पर किसी का वश नहीं है।’ यह वाक्य हिंदी के प्रतिष्ठित समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने मेरी धर्मपत्नी गीता त्रिवेदी (37) के आकस्मिक और अप्रत्याशित निधन के बाद एक पत्र में सांत्वना देते हुए मुझे 1988 में लिखा था।  मुझे लगता है - मृत्यु का न कोई गणित होता है और न व्याकरण। बस मृत्यु की सत्ता होती है। लीला सेठ के लंबे सक्रिय जीवन में कानून की पेचीदगियां एक तरफ थीं, तो दूसरी तरफ परिवार को संभालने की नैतिक जिम्मेदारी। किसी को भी यह सोचकर हैरानी हो सकती है कि उन्होंने ‘घर और अदालत’ के बीच कैसे संतुलन बैठाया होगा।

20 अक्तूबर, 1930 को अपनी ननिहाल लखनऊ में जन्मीं लीला सेठ के पिता ब्रिटिश सरकार की इंपीरियल रेलवे सेवा में थे। उनकी मां की शिक्षा-दीक्षा मिशनरी स्कूल में हुई थी। घर का वातावरण अंग्रेजी वाला था। यहीं पर उनके बड़े बेटे विक्रम सेठ (अब अंग्रेजी के बड़े लेखक) से बाटा शू कंपनी, इंडिया, जहां लीला सेठ के पति प्रेमो काम करते थे, के मित्र येनसेक ने पूछा - ‘तुम्हारी मातृ भाषा क्या है?’ तो, उसने अंग्रेजी में जवाब दिया, ‘मेरी मातृ भाषा हिंदी है, लेकिन मेरी मां की अंग्रेजी है।’ विक्रम उस वक्त महज आठ साल के थे। यह भविष्य के होनहार अंग्रेजी लेखक विक्रम सेठ की हाजिर जवाबी थी, जो सबको पसंद आई।

लीला सेठ की आत्मकथा ‘ऑन बैलेंस’ शीर्षक से पेंगुइन-यात्रा बुक्स सिरीज में 2003 में आई थी। आत्मकथा का आधार यह था कि कई क्षेत्रों में अग्रणी इस महिला ने कानून के क्षेत्र में एक बड़ी लकीर खींची थी। उनकी यही आत्मकथा जब सात वर्ष बाद 2010 में पेंगुइन से ही प्रदीप तिवारी के अनुवाद में आई तो हिंदी संसार में अचानक चर्चा में आ गई। उस वर्ष के सर्वेक्षण में इसे खासी 
प्रमुखता मिली। 

लीला सेठ की शादी 13 मार्च, 1951 को प्रेमो (प्रेम नाथ सेठ) से हुई थी। मई 1954 में उन्हें लंदन के बांड स्ट्रीट स्थित बाटा डेवलपमेंट ऑफिस में काम करने का मौका मिला। लीला और प्रेमो अपने दो साल के बेटे विक्रम को नानी के पास भारत में छोड़ गए। लंदन पहुंचने पर लीला सेठ मांटेसरी डिप्लोमा कोर्स करना चाहती थीं, लेकिन वक्त ने उन्हें लंदन बार पहुंचा दिया। बार की परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान मिला और इस पर लंदन के दैनिक अखबार ‘पोस्ट’ ने जो विशेष समाचार छापा उसका शीर्षक था - लीला सेठ: मदर इन ‘लॉ’। यह शीर्षक द्विअर्थक है। लीला सेठ के जीवन की यह सबसे बड़ी सफलता थी। हालांकि इसके पहले भी कई भारतीयों को ऐसी प्रसिद्धि मिल चुकी थी - खासकर पटेल बंधुओं को।

अकादमिक सफलता से लबरेज भारत लौटीं लीला सेठ को जीवन का पहला ब्रेक कलकत्ता कोर्ट में मिला। 1958 में प्रेमो का तबादला पटना हो गया तो वह भी वहीं आ गईं और पटना हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी। उस वक्त पटना हाई कोर्ट में दो ही महिला वकील थीं। धर्मशीला लाल, जो प्रसिद्ध इतिहासकार के.पी. जायसवाल की बेटी थीं और लीला सेठ। लीला सेठ पटना हाई कोर्ट में लगभग दस साल रहीं। जहां तक मुझे याद पड़ता है मेरे पिताजी मुकदमा लड़ते थे और उनके कई मुकदमे हाई कोर्ट में लंबित थे। वे प्राय: मुकदमे के निर्णय मुझ से पढ़वाकर सुनते और धर्मशीला लाल, ऊंटवालिया और लीला सेठ का नाम लिया करते थे। लीला सेठ चार बच्चों की मां थीं। दो बेटे विक्रम और शांतम तथा दो बेटियां- आराधना और इरा। इरा को उन्होंने अपने भाई शशि को गोद दे दिया था, जिसकी बाद में मृत्यु हो गई। बाद में लीला सेठ दिल्ली हाई कोर्ट की पहली जज बनीं और फिर हिमाचल हाई कोर्ट की पहली महिला चीफ जस्टिस। इसके अतिरिक्त भी लीला सेठ ने अनेक महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। वे विधि आयोग से भी जुड़ी रहीं और 16 दिसम्बर 2012 के निर्भया कांड के बाद गठित न्यायमूर्ति वर्मा आयोग के तीन सदस्यों में भी शामिल थीं। 

अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक  विक्रम सेठ की मां कहलाने से पहले वे स्वयं बड़ी लेखिका थीं। ‘ऑन बैंलेंस’ के अलावा ‘टॉकिंग ऑफ जस्टिस : पीपुल्स राइट्स इन मॉडर्न इंडिया’ भी उनकी उल्लेखनीय किताब है। लीला सेठ की स्मृति को नमन। 

वकालत नहीं, जाकर शादी-वादी करो
मैं चैम्बर से जुड़ने के लिए पूरे जोर-शोर से एक अच्छे सीनियर की तलाश में लग गई थी। इस सिलसिले में कलकत्ता हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार श्री अहमद से मिलने पहुंची, जिनके पास तीस बैरिस्टरों की ऐसी सूची थी, जो प्रशिक्षु रखने के लिए अधिकृत थे और जूनियर वकीलों की तलाश में भी थे। मैंने उन्हीं से पूछा कि मुझे किसके चैम्बर में शामिल होना चाहिए। जवाब में उन्होंने पूछा कि मैं इस सूची में शामिल महानुभावों में से किसको जानती हूं। मेरे यह कहने पर कि मैं तो किसी को नहीं जानती तो आश्चर्य से पूछा, ‘फिर तुम इस पेशे में क्यों आ रही हो?’...इस पर मैंने कहा कि वह मुझे सिर्फ यह बता दें  कि सबसे बेहतरीन बैरिस्टर कौन है, बाकी मुझ पर छोड़ दें... थोड़ी टालमटोल के बाद उन्होंने दो वकीलों के नाम सुझाए, एक सचिन चौधरी, दूसरा एलिस मायर्स। एलिस मायर्स नाम काफी अंग्रेजी लगा, इसलिए तय किया कि मुझे सचिन चौधरी को ही चुनना चाहिए।

मुझे बचपन की सिखाई बात याद आई, अगर तुम अच्छा फल पाना चाहती हो तो सबसे ऊंची डाल तक चढ़ना ही पड़ेगा। एलिस मायर्स नाम काफी अंग्रेज लगता था, इसलिए तय किया कि मुझे सचिन चौधरी का ही चैम्बर चुनना चाहिए ... जब उनसे मिलने पहुंची तो काफी डरी और हड़बड़ाई हुई थी, लेकिन चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ खुद को बहादुर दिखाने में कोई कसर नहीं रखी। इस बारे में थोड़ा-बहुत जानते हुए भी कि मैं उनके पास क्यों आई हूं, वह स्थिति एकदम साफ कर लेना चाहते थे। काफी गंभीर व कड़क आवाज में बोले, ‘क्या है?’ मैंने उन्हें बताया तो बोले,‘कानूनी पेशा अपनाने के बजाय जाकर शादी-वादी करो।’ तो मैंने कहा, ‘लेकिन श्रीमान मैं तो पहले ही शादीशुदा हूं।’ उनकी सलाह थी, ‘तो जाकर बच्चे पैदा करो।’ मेरे यह बताने पर कि ‘बच्चा भी है’- उनका अगला वाक्य था, ‘यह तो ठीक नहीं है कि बच्चा अकेला रहे। इसलिए अच्छा होगा कि तुम दूसरे बच्चे के बारे में सोचो।’ तब मैंने कहा, ‘चौधरी जी, मेरे पहले से दो बच्चे हैं।’ अब तीसरी बार वह थोड़ा चौंके और बोले, ‘तब ठीक है मेरे चैम्बर में शामिल हो जाओ। तुम दृढ़ निश्चयी युवती हो और बार में अच्छा काम करोगी।’

ईश्वर या सत्यनिष्ठा
शपथ ग्रहण समारोह से कुछ दिन पहले दिल्ली हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार ने मुझसे पूछा कि मैं ईश्वर के नाम पर शपथ लेना चाहती हूं या फिर सत्यनिष्ठा की। मैं थोड़ी उलझन में पड़ गई और पूछा कि बाकी लोग क्या करते हैं। उसने बताया कि यह तो अपनी-अपनी पसंद की बात है, लेकिन जहां तक उनकी जानकारी है, सामान्य तौर पर लोग ईश्वर के नाम पर ही शपथ लेते हैं। बचपन में मेरा धर्म की ओर काफी ज्यादा झुकाव था, लेकिन बाद में मुझे सवालों के दौर से भी गुजरना पड़ा था। मैं एकदम से नास्तिक तो नहीं थी, बल्कि अज्ञेयवादी हो गई थी। मैंने सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ लेने का फैसला किया, जबकि उसके तुरंत बाद नरिंदर ने धार्मिक आधार पर शपथ ली। शपथ का स्वरूप भारतीय संविधान की तीसरी अनुसूची में निर्धारित किया गया है। इसमें शामिल शब्द एकदम सुस्पष्ट, काफी अपेक्षाएं रखने वाले और असाधारण तरीके से आत्मीय हैं।

वह गर्वीला क्षण
चीफ जस्टिस टाटाचारी के साथ तेज और स्पष्ट आवाज में जब मैंने ये (शपथ) शब्द दोहराए तब मैंने एक अजीब सी सनसनाहट महसूस की, जो उत्साह और भय की मिली-जुली अनुभूति थी। मैंने अपने अंतर्मन में एक तरह से बदलाव को महसूस किया, खासकर तब, जब ‘भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना कर्तव्य पालन’ की प्रतिज्ञा ली। मैंने महसूस किया कि एक जज के तौर पर मुझ पर बेहद गंभीर जिम्मेदारी आ गई है। यह एक बहुत बड़ी ताकत थी, एक तरह से भगवान बन जाने जैसी: क्योंकि एक जज न केवल किसी की स्वतंत्रता, बल्कि उससे जीने का हक भी छीन सकता है।
(लीला सेठ की आत्मकथा ‘ऑन बैलेंस’ के हिन्दी अनुवाद ‘घर और अदालत’ से साभार) 

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