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रासुका की राजनीति

आखिरकार मतदान खत्म होने के एक दिन बाद वरुण गांधी जेल से छूट गए। सुप्रीम कोर्ट ने उन पर रासुका लगाने को गलत बताया। भाजपा ने इसे उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार की हार बताया और राज्य सरकार की कोई...

 रासुका की राजनीति
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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आखिरकार मतदान खत्म होने के एक दिन बाद वरुण गांधी जेल से छूट गए। सुप्रीम कोर्ट ने उन पर रासुका लगाने को गलत बताया। भाजपा ने इसे उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार की हार बताया और राज्य सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। हालांकि अगर इसे राज्य सरकार की हार कहा जाए तो यह भी कहना होगा कि राज्य सरकार ने जीतने की कोई कोशिश भी नहीं की। सुप्रीम कोर्ट में तो राज्य सरकार के प्रतिनिधि यह मान कर ही आए थे कि यहां उनके खिलाफ फैसला होना है, उन्होंने आधे-अधूरे मन से ही अपना पक्ष रखा। इसलिए इसे वरुण गांधी की या तथाकथित हिंदुत्व की जीत या राज्य सरकार की या तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की हार बताना गलत होगा, अगर यह कुछ था तो एक चुनावी पैंतरा था, जिसका लाभ सभी संबंधित पक्षों को मिला। जब नफरत फैलाने वाले भाषणों के लिए वरुण गांधी पर रासुका लगाया गया था, तभी इसका कानूनी या प्रशासनिक औचित्य संदेहास्पद था। लेकिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना चाहती थीं कि वे उनके खिलाफ उग्र भाषा इस्तेमाल करने के लिए वरुण गांधी को कड़ी सजा देंगी। इस सब प्रकरण में वरुण गांधी का कद कट्टर हिंदुत्ववादियों की नजर में बढ़ गया और वे उनके नायक बन गए। इसका लाभ वरुण को या उनकी पार्टी को जितना भी हुआ होगा, उतना ही बसपा को भी मिलने की उम्मीद रही होगी। मुलायम सिंह यादव से मुसलमानों के मोहभंग की खबरं इस चुनाव में आती रहीं, और इन मुसलमानों पर नजर बसपा की भी रही होगी। इसीलिए जब रासुका पर गठित सलाहकार बोर्ड ने वरुण गांधी पर रासुका को गलत ठहराया तब भी सरकार ने उन्हें रिहा नहीं किया और सुप्रीम कोर्ट में अपील की। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट का फैसला यही होना था कि राज्य सरकार को सलाहकार बोर्ड की सलाह पर अमल करना चाहिए। तब तक मतदान पूरा हो चुका था और राज्य सरकार की कोई दिलचस्पी वरुण गांधी को जेल में रखने में नहीं बनी थी। वरुण गांधी कुछ दिन जेल में रह लिए, लेकिन रातों रात वे भाजपा का नया चेहरा या मुखौटा बन गए, संभव है वोटों के ध्रुवीकरण से भाजपा को चुनाव में कुछ फायदा हुआ हो। बसपा ने भी एक राजनैतिक दांव चल दिया। इस तरह यह कहानी है जिसका अंत इसके सभी पात्रों के लिए सुखद रहा। यह सवाल धर्मनिरपेक्षता का या सांप्रदायिकता का यह द्वंद्व तो अभी चलता रहेगा।

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