दो पाटन के बीच
श्रीलंकाई सेना और लिट्टे के आतंकवादियों के दो पाटन के बीच फंसी और सुरक्षा के लिए भागती तमिल जनता की दशा देखकर विश्व समुदाय दुखी होने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा है। श्रीलंका के राष्ट्रपति महेंद्र...
श्रीलंकाई सेना और लिट्टे के आतंकवादियों के दो पाटन के बीच फंसी और सुरक्षा के लिए भागती तमिल जनता की दशा देखकर विश्व समुदाय दुखी होने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा है। श्रीलंका के राष्ट्रपति महेंद्र राजपक्षे ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन की सैनिक हमले में ढील देने की अपील ठुकरा दी है। वे सैनिक कार्रवाई को तमिल नागरिकों के पुनर्वास में बाधक के बजाय सहायक मान कर चल रहे हैं। फिलहाल एसा दिख भी रहा है। नो फायर जोन में लिट्टे की बंधक बनी 58 हाार लाचार तमिल जनता महा डेढ़ किलोमीटर दूरी पर स्थित सेना की चौकियों तक पहुंचने के लिए जिस तरह जान हथेली पर रख कर भागी है, वह मानव इतिहास में पलायन की असाधारण घटना बताई जा रही है। उसमें औरतें, बूढ़े, बच्चे और जवान सब थे और वे पीछे से चल रही लिट्टे की गोलियों की परवाह किए बिना, उन सैनिक शिविरों की तरफ दौड़ रहे थे जिसे अब तक उनके दुश्मन के रूप में पेश किया गया था। सरकार के शिविरों में पनाह पाने वाले इन तमिलों की स्थिति कतई अच्छी नहीं है और न ही यह उम्मीद की जा सकती है कि इतनी सख्त सैन्य कार्रवाई करने वाली श्रीलंका सरकार लिट्टे के खात्मे के बाद तमिल जनता के साथ होने वाले भेदभाव को तुरंत खत्म करने जा रही है। पर जिस तरह वे भागे हैं, उससे स्पष्ट है कि लिट्टे के आतंकियों ने आम जनता को जिस प्रकार बंधक बना कर रखा था, उससे निकल कर तो वे अपने को बेहतर स्थिति में महसूस कर रहे हैं। किसी राजसत्ता या धार्मिक और जातीय समूह के अत्याचार के खिलाफ छिड़ने वाली लड़ाई जब आतंकवाद को अपना मुख्य साधन बना लेती है तो वह अपने लोगों पर परायों से ज्यादा अत्याचार करने लगती है। एसा ही कुछ लिट्टे के साथ हुआ है। इसी के चलते आज विश्व समुदाय में उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि लिट्टे और उसके नेता प्रभाकरण की आसन्न समाप्ति के बाद श्रीलंका में तमिल जनता के हक का पहरुआ कौन बनेगा? श्रीलंका के तमिलों के बढ़ते पलायन के चलते भारत के साथ 1े बांग्लादेश जसी समस्या खड़ी हो रही है, जिसे हम भी न तो छोड़ सकते हैं पर पुराने तरीकों से हल भी नहीं कर सकते।