प्रतिशोध न बने पहचान
तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तैयिप एर्दोगन ने अपनी सरकार को अपदस्थ करने की कोशिश के एक साल पूरे होने पर 15 जुलाई को इसी अखबार में लिखा था, ‘हम अब भी न्याय के प्रति प्रतिबद्ध हैं’। सवाल है...
तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तैयिप एर्दोगन ने अपनी सरकार को अपदस्थ करने की कोशिश के एक साल पूरे होने पर 15 जुलाई को इसी अखबार में लिखा था, ‘हम अब भी न्याय के प्रति प्रतिबद्ध हैं’। सवाल है कि एर्दोगन किस प्रतिबद्धता की याद दिला रहे हैं। इसी सप्ताह एक भाषण में वह ‘न्यायिक प्रतिशोध’ के लिए सजा-ए-मौत की वकालत करते दिखे कि ‘सजा-ए-मौत का कानून वापस लाने के लिए वोट हुआ, तो वह देशद्रोहियों का सिर कलम करने को समर्थन देंगे।’ ऐसा कोई भी कदम तुर्की को विदेश व घरेलू राजनीति, दोनों ही मोर्चों पर पीछे धकेल देगा। सबसे पहले तो तुर्की की यूरोपीय संघ में प्रवेश की दावेदारी खत्म हो जाएगी। यह न सिर्फ अमानवीय है, बल्कि अब तक इसका कोई सकारात्मक नतीजा दिखा नहीं है। यह राज्य को उसके लिए खतरा बन रहे इंसान के खात्मे का हथियार जरूर देता है। होना तो यह चाहिए था कि तुर्की का आधुनिक लोकतंत्र मुस्लिम देशों के लिए नई नजीर पेश करता, लेकिन यहां तो उल्टा ही दिख रहा है। तुर्की वह भयावह मंजर भूला नहीं है। सच यह है कि आम तुर्क ने कभी सैन्य शासन नहीं चाहा। विपक्ष भी इसके खिलाफ मुखर रहा है। राष्ट्रपति एर्दोगन पहली बार सत्ता में उस वक्त आए, जब 2003 में वह प्रधानमंत्री बने। दक्षिणपंथी एर्दोगन पर कट्टरपन इस कदर हावी हुआ कि वह विरोधियों को सबक सिखाने पर आमादा हो गए। बीते एक साल में इसका भयावह रूप दिखाई दिया है। 15 लाख से ज्यादा लोगों पर केस दर्ज हुए और बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, अपने हक की बात करने वालों और तमाम विपक्षी सांसदों सहित 50,000 से ज्यादा लोग जेलों में ठंूस दिए गए। इन्हीं हालात में एर्दोगन एक और तकनीकी जीत हासिल कर देश, सरकार और सत्तारूढ़ दल, तीनों के मुखिया होने के अधिकार अपने में सीमित कर सर्वशक्तिमान हो गए। ऐसे हालात में समय के साथ उनके बदल जाने के प्रति आश्वस्त राजनेता गलत सोच रहे हैं। एर्दोगन को अभी 2019 का चुनाव जीतना है। विपक्ष बिखरा हुआ है। चुनौतियां बड़ी हैं। देखना होगा कि ‘प्रतिशोध की यह नई रीति’ तुर्की की पहचान न बनने पाए।