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मोसुल की आजादी

साल 2014 में जब इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) ने इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल को अपने कब्जे में लिया था, तो वहां पहला काम यही किया गया कि जिन-जिन बाशिंदों की राय उससे अलग थी, उनकी हत्या की जाने लगी।...

मोसुल की आजादी
क्रिश्चियन साइंस मॉनिटर, अमेरिकाThu, 13 Jul 2017 09:36 PM
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साल 2014 में जब इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) ने इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल को अपने कब्जे में लिया था, तो वहां पहला काम यही किया गया कि जिन-जिन बाशिंदों की राय उससे अलग थी, उनकी हत्या की जाने लगी। ऐसे में, यह स्वाभाविक कल्पना की जा सकती है कि नौ जुलाई को जब इराकी फौज ने इस शहर को फिर से अपने नियंत्रण में लिया, तो क्या हुआ होगा? अब आम नागरिक वापस लौटने लगे हैं। प्रधानमंत्री हैदर अल अबादी ने मोसुल में स्थिरता लाने का वादा किया है। विदेशी दानदाताओं ने शहर के पुनर्निर्माण में मदद करने की पेशकश की है। 15 जुलाई को अल्पसंख्यक सुन्नियों के नेता बहुसंख्यक शिया के नेताओं से मिलने वाले हैं, ताकि शहर को फिर से संवारने की प्रक्रिया तय की जा सके। और, अब ज्यादातर इराकी सितंबर में चुनाव को भी उत्सुक हैं। बहरहाल, करीब तीन साल के कत्लेआम व आईएस की अलोकतांत्रिक हुकूमत का दौर देखने वाले इराक ने राष्ट्रीय समन्वय पर खासा ध्यान दिया है। आईएस ने इसके करीब 40 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया था और लगभग एक करोड़ लोगों पर उसका शासन था। असल में, हिंसक संघर्ष देखने वाले हर मुल्क को फिर से खड़ा होने का रास्ता खोजना ही पड़ता है। इसमें माफी या पीड़ितों के लिए न्याय जैसे काम भी जरूरी होते हैं। इराकियों के लिए जरूरी यही है कि वे सियासत में मजहबी विभेद से पार पाने, भ्रष्टाचार का अंत करने और अल्पसंख्यकों में विश्वास का माहौल बनाने में जो सफलता अर्जित की है, उसे मजबूत बनाएं। वैसे, आईएस से हार के बाद सबसे उल्लेखनीय एकता सुरक्षा बलों में दिखी है, जहां अधिकतर अधिकारियों की पदोन्नति सियासतदानों से करीबी की वजह से नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर हो रही है। यहां तक कि फौज में बेशक शियाओं का वर्चस्व है, पर वे सुन्नियों के साथ मित्रवत व्यवहार करने लगे हैं। निश्चय ही, अल्पसंख्यकों को हाशिये पर रखकर कोई भी मुकाम हासिल नहीं किया जा सकता। वैसे, मोसुल पर फिर से नियंत्रण पाने के बाद होना यही चाहिए कि पुनर्निर्माण के काम तेज गति से हों और मजहबी एकता को मजबूत किया जाए। 

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