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असली साहित्य के निर्माण में असली घी का बड़ा महत्व

अभी आप मेरी बात मानें या न मानें, लेकिन एक दिन आपको यह जरूर मानना पड़ेगा कि असली साहित्य के निर्माण में असली घी का बड़ा महत्व है। मुझे पक्का यकीन है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय का कोई...

असली साहित्य के निर्माण में असली घी का बड़ा महत्व
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 14 Oct 2017 10:58 PM
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अभी आप मेरी बात मानें या न मानें, लेकिन एक दिन आपको यह जरूर मानना पड़ेगा कि असली साहित्य के निर्माण में असली घी का बड़ा महत्व है। मुझे पक्का यकीन है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय का कोई मल्टी डिसिप्लिनरी का कोई अंग्रेजी विद्वान खोज निकालेगा कि हिंदी साहित्य में जो ‘सहितस्य भाव’ रहता है, उसके पीछे असली घी का ही असली हाथ है। वह यह भी खोज निकालेगा कि किस साहित्यकार ने कितना असली घी खाया, कितना पिया? किस कविता पर, किस शास्त्र पर असली घी का कितना और कब असर हुआ और उसके चिह्न चमचे-चम्मचों के चिह्न पर अब भी उसी तरह देखे जा सकते हैं? वह सप्रमाण बता देगा कि कविता में कहां छौंक लगा था? कब किस माताश्री ने अपने लाडले की उड़द की दाल में प्रेम से दो चम्मच घी गिराया था? यहीं पर वह घड़ा था, जिसमें असली घी रहा करता था।

तुलसी, सूर, जायसी, कबीर, रैदास और बिहारी, मतिराम, देव, पद्माकर से लेकर घाघ, भड्डरी और फिर लाला श्रीनिवासदास से शुरू करके प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, पंत, महादेवी, बच्चन, दिनकर आदि तक, और भी कई असली घी वाले थे। उनकी रचनाओं में असली घी ने बड़ा काम किया। इसी के कारण ही वे टिकाऊ, बिकाऊ और नई पीढ़ी के लिए पकाऊ हुईं। जब कोई पच्छिमी विद्वान हमें असली घी का ज्ञान दान करेगा, तब जाकर हम अपने ही असली घी का मर्म समझेंगे। बार-बार कोट करते फिरेंगे कि किस तरह रॉबर्ट निकलसन ने सबसे पहले हिंदी साहित्य के चिंतन को नई दिशा दी। हिंदी साहित्य को असली घी का विमर्श वापस किया। कई खुद को कुछ धिक्कारा करेंगे कि देखा, पश्चिम के प्रभाव के मारे हम अपने ही घी को भूल गए। साहित्य के विकास में न किसी महापुरुष की प्रेरणा रही, न किसी आदर्श की भूमिका रही, न किसी दर्शन की भूमिका रही, न किसी रस, अलंकार संप्रदाय की। असली भूमिका रही, तो सिर्फ असली घी की। इसी से कालिदास कालिदास बने। भवभूति भवभूति बने, बाणभट्ट बाणभट्ट बने आदि।

कभी इधर दूध-दही की नदियां बहा करती थीं। क्षीर सागर भी था, तो असली घी के तड़ाग-ताल हुआ करते होंगे। यह एक शाश्वत सत्य पंडित जन मनवा चुके थे कि ‘यथा अन्नं तथा मन:’ यानी जिस तरह का खान-पान होता है, मन भी उसी तरह का बनता है। और कविता तो मनोमयकोश का ही खेल है। मूंग, उड़द या अरहर की दाल बनी। हींग जीरे के साथ असली घी का छौंक लगा। थाली में हरी मिर्च रही और फूली-फूली रोटियां। सबने पालथी मारकर भरपेट खाया। पेट पर हाथ फेरा, डकार मारी, तो तय मानिए कि एक बड़ी रचना बनेगी ही।
असली घी की थियरी आने के बाद ही हम जान पाएंगे कि साहित्य पर न किसी दर्शन का असर होता है, न विचारधारा का। यदि कोई असर होता है, तो असली घी का होता है। असली घी न हो, तो उसकी महक दिग्दिगंत में न फैले।  

रिफाइंड ऑइल वाली पीढ़ी असली घी की खुशबू का स्वाद क्या जाने? इससे पहले वाली डालडा पीढ़ी को तो सिखाया ही यह गया है कि असली घी हानिकारक है, उससे दिल की बीमारी होती है। कविता करनी है, तो डालडा लो, जो विटामिन ए और डी से युक्त है। रचना की असली पहचान घी से होती है। असली घी वाली रचना असली होती है, नकली घी वाली नकली होती है। असली साहित्य साधना असली घी की साधना है, बाकी सब रिफाइंड ऑइल की रचना है।
 

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