अब खिसियाए होत क्या
इतना बड़ा फैसला आया, लेकिन अपने हिंदी साहित्यकारों का एक बयान न आया। न एक दस्तखत, न एक अभियान। न कहीं आग लगी, न कहीं गोली चली, लेकिन फिर भी सब चुप कवि जन निर्वाक। ‘तुरंता (इंस्टेंट) तीन...
इतना बड़ा फैसला आया, लेकिन अपने हिंदी साहित्यकारों का एक बयान न आया। न एक दस्तखत, न एक अभियान। न कहीं आग लगी, न कहीं गोली चली, लेकिन फिर भी सब चुप कवि जन निर्वाक। ‘तुरंता (इंस्टेंट) तीन तलाक’ की मारी मुस्लिम औरतों के उदास चेहरों पर पहली बार एक साहित्यिक किस्म की खुशी झलकी। वे मिठाइयां बांट रही थीं। खिलखिला रही थीं। लेकिन अपने प्रगतिशील साहित्यकारों को कुछ फील ही नहीं हुआ।
उनकी प्रगति का एक दरवाजा खुला। मॉडर्निटी ने दस्तक दी। स्त्री को मुक्ति दिलाने की आवाज बुलंद करने वाला तथाकथित ‘स्त्रीत्ववादी विमर्श’ चुप लगा गया। पहली बार मालूम हुआ कि स्त्रीत्ववादी विमर्श में ‘तुरंता तीन तलाक’ की मारी मुस्लिम बहनों की तकलीकें कहीं हैं ही नहीं। सबसे घोर ‘प्रतिक्रियावादी’ ‘तानाशाह’ ‘हिंदुत्ववादी’‘पुनरुत्थानवादी’ सत्ता ने ‘तुरंता तीन तलाक’ के खात्मे का पक्ष लिया, लेकिन ‘क्रांतिकारी विमर्श’ ने ‘तुरंता तीन तलाक’ के बने रहने की हिमायत की। एक ही क्षण में प्रतिक्रियावादी प्रगतिशील नजर आए, और प्रगतिशील प्रतिक्रियावादी।
यह कौन सी द्वंद्वात्मकता है कि जिनको महिला मुक्ति की अगुवाई करनी थी, वे ‘तुरंता तीन तलाक’ को जायज ठहराते रहे और जो एंटी मुस्लिम कहे गए, वे पीड़ित औरतों के मुक्तिदाता जैसे दिखे? कुछ समझदार नरमदली प्रगतिशीलों ने अवसर के हिसाब से पल्टी मारने में देर न की। कल तक जो ‘तुरंता तीन तलाक’ पर सीमेंट लगाते थे, अब यह कहते दिखते हैं कि फैसला अच्छा है। कल तक विरोध और अब अनुरोध?
वह कमिटमेंट कहां गया भाईजी? कल तक सबसे पूछते रहते थे कि ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ और खुद ही कभी इसके पाले, कभी उसके पाले? यह आपको क्या हो गया है साथी? अब किसी से न पूछना ‘किस ओर हो’? पहले अपनी ओर देखना, तब पूछना ‘किस ओर हो’। प्रेमचंद ने तो आपको राजनीति के आगे की मशाल बताया था, आप राजनीति का ‘मसाला’ कब से बन गए?
हमारे यहां प्रगतिशील साहित्यकारों के तीन-तीन संगठन हैं। एक हल्का लाल है, दूसरा कुछ गहरा लाल है और तीसरा तो अपने को लाल ही लाल कहता है। तीन संगठन और तीन तलाक पर चुप्पी? पहले पार्टी से लाइन मिलेगी, फिर महासचिव उसका अनुवाद करेगा, फिर ‘डिस्कसन’ करेगा, तब लाइन देगा। फिर बयान आएगा। दस-पांच दिन निकल जाएंगे और मुद्दा गायब हो जाएगा। अपने प्रगतिशील प्रगति की गाड़ी पर कभी चढ़ ही नहीं पाते। गाड़ी स्टेशन पर रुकती है, तो सोचते हैं- चढ़ें कि न चढ़ें? किसकी गाड़ी है? मल्टी-नेशनल की है कि ट्रंप की? चीन की या क्यूबा की? जब गाड़ी निकल जाती है, तो पीछे दौड़ते हैं कि हाय, हम रह गए।
प्रगतिशीलों की गाड़ी न जाने कितनी बार छूटी है। ये इसी दुविधा में रहे कि चढे़ कि न चढ़ें? अपनी प्रगतिशीलता यही है, जिसमें ‘गतिशीलता’ के अलावा सब है। यह कौन सा सेकुलरिज्म है साथी कि ‘तुरंता तीन तलाक’ के कारण हाहाकार करती, बच्चे पालती और मुकदमे लड़ती शायरा बानो, इशरत जहां, आफरीन रहमान आदि आपके क्रांतिकारी स्त्रीत्ववादी विमर्श का हिस्सा ही नहीं बन सकीं? अब आपसे उनकी खुशी भी नहीं देखी जाती। यह प्रगतिशीलता भी आखिर मर्दवादी निकली।
मोदी इसका श्रेय लेते हैं, तो लेंगे ही। आप भी इसकी मशाल बन सकते थे, पर आप तो स्वयं ‘मर्दवादी मसाला’ बन गए। अब खिसियाए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।