कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
वो भी कैसा वक्त था, जब एक कवि, कवि से कहा करता था- कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए/ एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए/ प्राणों के लाले पड़ जाएं, त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए/ नाश और...
वो भी कैसा वक्त था, जब एक कवि, कवि से कहा करता था- कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए/ एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए/ प्राणों के लाले पड़ जाएं, त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए/ नाश और सत्यानाशों का धुआंधार जग में छा जाए! (नवीन) कविता कवि की ब्रांड होती। जनता उसी की मांग करती। कवि गद्गदाकर उसे सुनाता। जनता जोर से ताली मारती। सब जानते होते कि कविता है। कविता में चाहे कितनी भी ‘तान’ तोड़ो, ‘उथल-पुथल’ मचवाओ या ‘धुआंधार’ करवाओ, उससे कुछ नहीं होता। हां, जोशीली बातें सुनकर कुछ देर अच्छा लगता है। फिर कवि पेमेंट के लिए आयोजकों के चक्कर मारता है।
फिर भी धुआंधारी कविता सुनकर एक तसल्ली सी होती कि अब भी हिंदी में अपने ‘चंदबरदाई’, ‘भूषण’ और ‘गुप्त जी’ जीवित हैं। क्रांतिकारी जज्बा अब भी जीवित है। कविता अब भी कुछ कर सकती है। लेकिन ये तो कवि को ही मालूम रहता कि कविता क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती? कविता यह कर सकती है, वह कर सकती है। अगर ऐसी गलतफहमी न हो, तो कविता को कौन पूछे? पर होती यह गलतफहमी ही है, और इस गलतफहमी पर उंगली रखी अकवितावादी कवि धूमिल ने। वह एक कविता में कहते हैं- जब इस कविता से/ न चोली बन सकती है न चोंगा/ तब आपै कहा.../ मैं इसका क्या करूं?
धूमिल के चेताने से भी कविता को लेकर बनी गलतफहमी दूर नहीं हुई। इसीलिए हिंदी में दो-तीन दिवसीय सेमिनार और संगोष्ठियां अब तक होती हैं, जिनमें बडे़-बड़े आचार्य लंबे-लंबे भाषण पेलकर यह समझाते हैं कि कविता की भूमिका ‘यह’ है, ‘वह’ है। वह ‘ये’ कर सकती है, ‘वो’ कर सकती है। क्रांति कर सकती है, करा सकती है...। दुनिया की किसी भाषा में कविता की भूमिका नहीं समझाई जाती, लेकिन हिंदी में कविता की भूमिका, कविता की प्रासंगिकता, कविता की सार्थकता अब भी ऐसे अनसुलझे मुद्दे हैं, जिनके बारे में सोच-विचार करते-करते बहुतों की जिदंगी गुजर गई। बहुतों के साहित्यिक करियर बन गए, लेकिन यह अब तक समझ न आया कि कविता क्या कर सकती है?
अगर ऐसी गलतफहमी कॉमरेडों को हो जाए, तो फिर भला कैसे जाए? वे हमेशा कविता को ‘ठीक’लाइन पर चलने के लिए लट्ठ लिए खड़े रहते हैं। लाइन से जरा सी इधर-उधर हुई, तो धर दिए दो-चार कि कहां जाती है, ध्यान किधर है, असली क्रांति की यही दुकान है। खबरदार जो जयपुर गई? इस चक्कर में जयपुर जाते-जाते कई कवि बंधु हिचक गए। सोचा था कि ये पढ़ेंगे, वो पढ़ेंगे, अपनी कविता से ‘फासिज्म’ की नाक में दम कर देंगे। लेकिन इस बार ‘फासिज्म’ ने कुछ न किया। जो किया कॉमरेडों के क्रांतिकारी ब्राह्मणवाद ने किया। कविता को जयपुर में ‘होने’ से ही रोक दिया। यह रही कविता की औकात। एक तो वैसे ही कविता के लेवाल नहीं मिलते। ऐसे में, काव्य पाठ का न्योता भी मिला, तो क्रांतिकारी कॉमरेडों ने टांच मार दी। हम तो सोचे थे कि कविता के दुश्मन सिर्फ ‘फासिस्ट’ होते हैं। अब तो लगता है कि कविता से दुश्मनी निभाने में कॉमरेड भी कम नहीं।
ऐसे में कौन कहे- कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए/ एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए/ ...नाश और सत्यानाशों का धुआंधार जग में छा जाए। कविता की टांग तो कॉमरेडों ने ही तोड़ दी।