फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रहो रहा है जो जहां सो हो रहा

हो रहा है जो जहां सो हो रहा

‘हो रहा है जो जहां सो हो रहा...।’ यह हिंदी साहित्य का वह ‘स्थायी’ है, जिसके कारण शेष साहित्य इसका सिर्फ ‘अंतरा’ नजर आता है। और वह हिंदी साहित्य का...

हो रहा है जो जहां सो हो रहा
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 29 Apr 2017 09:44 PM
ऐप पर पढ़ें

‘हो रहा है जो जहां सो हो रहा...।’
यह हिंदी साहित्य का वह ‘स्थायी’ है, जिसके कारण शेष साहित्य इसका सिर्फ ‘अंतरा’ नजर आता है। और वह हिंदी साहित्य का ‘स्थायी’ क्यों न हो? राष्ट्रकवि की पुण्य लेखनी से प्रसूत यह तुकांत लाइन ऐसी पक्की तुकांतवादी है कि पढ़ते ही वह आपके मन में इसी छंद में तुक मारने की ललक पैदा कर देती है। आप बराबर की मात्रा में लाइन पे लाइन मारते चले जा सकते हैं। जैसे-
‘सो रहा है जो जहां सो सो रहा/ रो रहा जो जहां सो रो रहा/ खो रहा है जो जहां सो खो रहा/ ढोे रहा है जो जहां सो ढो रहा/ बो रहा है जो जहां सो बो रहा...’।

देखा, तुक मारते-मारते मैं भी तुकवि हो गया। इसीलिए कह रहा हूं कि यह एक प्रकार की युगप्रवर्तनकारी कविता है। सरल, सहज और रोजाना बोले जाने वाले ऐसे शब्द हैं, जो अ-रटनशील को भी रट जाते हैं। इन पंक्तियों के सहारे न जाने कितने हिंदी वाले एमए हो गए, पीएचडी हो गए, दो चार तो डीलिट् तक हाथ मार ले गए। पंडितजन पोथे पर पोथे लिख गए और रिटायर भी हो गए। उनके चेले भी इसी तरह रिटायर हुए और उनके ‘परचेले’ तक इसी सुगति को प्राप्त हुए। 

यह है कविता की ताकत। चंद पंक्तियों की ताकत। सच कहता हूं, मेरे इस तरह का आशु-कवि बनने के पीछे कविवर का हाथ है। न एमए की पाठ्य-पुस्तक में राष्ट्रकवि से भेंट होती, न इस ‘मोस्ट इंपोर्टेंट क्वेश्चन’ का जिक्र होता, न हम दस प्वॉइंट वाला उत्तर रटते और न लिखकर आते, न ‘फस्र्ट क्लास’ पाते और न हिंदी की रोटी खाते, न इन पंक्तियों को रह-रहकर याद करते-कराते, और न इनको फिर ‘मोस्ट इंपोर्टेंट’ बताते। सच्चा साहित्य इसी प्रकार से ‘अमर’ होता है। सच कहा है- सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसाम्  यानी सत्संगति क्या नहीं कर सकती? अर्थात वह मुझ जैसे मूढ़मति को भी कवि बना सकती है। यह राष्ट्रकवि की पदचर्या ही तो थी कि मैं भी ‘कविया’ गया। तुक पर तुक बिठाने लगा। जहां न लगती, वहां पर भी लगाने लगा।

राष्ट्रकवि ने एक बेहद संवेदनशील वक्त में ये चंद पंक्तियां लिखीं-  
हो रहा है जो जहां सो हो रहा/ यदि वही हमने कहा तो क्या कहा/ किंतु होना चाहिए कब क्या कहां/ व्यक्त करती है कला ही वह वहां।
यह कविता नहीं थी, बल्कि साहित्य की ‘समूची सिद्धांतिकी’ थी- ‘टोटल थियरी’। मैं तो यह कहूंगा कि ‘थियरीज की थियरी’, जो चार लाइनों मे साहित्यकार को उसके समस्त कर्तव्य सिखा देती थी। हिंदी साहित्य वाले इन लाइनों का पूरा मतलब अब भी नहीं समझते। जब समझेंगे, तब काफी  अफसोस करेंगे कि पहले क्यों नहीं समझी?
समझ ली होती, तो हिंदी साहित्य ‘साहित्य की भूमिका’ ‘साहित्यकार की भूमिका’ पूछता हुआ गोष्ठियों में यूं न भटक रहा होता। भूमिका राष्ट्रकवि ने न जाने कब की बता दी। हिंदी वालों ने रट भी ली, लेकिन समझी इसे अभी तक नहीं। 
बहरहाल प्रसाद, माधुर्य और किंचित ओज गुण से युक्त और आलंकारिकता की जटलिता से मुक्त, यह कविता प्रथम पाठ में कंठगत हो गई तो इसीलिए कि यह साहित्य के ‘नीति-निर्देशक तत्व’ बताने वाली एक ‘स्थायी मार्ग दर्शक’ कविता थी और आज भी है।
कवि सबको रास्ता बताता है। यह रास्ता बताने वाले को रास्ता बताती है। मगर आज के कवि इतने स्वार्थी हैं कि पूछने पर भी किसी को रास्ता नहीं बताते। इसीलिए तो सब अटके, भटके, सटके और लटके से लगते हैं।
 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें