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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रमेरे दुख की दवा करे कोई

मेरे दुख की दवा करे कोई

‘हिंदी देश की एकता के लिए खतरा है’! ‘हिंदी तानाशाही मुर्दाबाद’! ‘हिंदी देश की बहुभाषिता के लिए खतरा है’! ‘इससे देश टूट जाएगा’! ऐसी बातें सुनकर पहले...

मेरे दुख की दवा करे कोई
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 06 May 2017 11:38 PM
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‘हिंदी देश की एकता के लिए खतरा है’! ‘हिंदी तानाशाही मुर्दाबाद’! ‘हिंदी देश की बहुभाषिता के लिए खतरा है’! ‘इससे देश टूट जाएगा’!

ऐसी बातें सुनकर पहले मुझे खुशी हुई कि चलो, अपनी हिंदी इतनी तगड़ी तो बनी कि देसी अंग्रेज उससे डरने लगे और हिंदी को ही खतरा बताने लगे। मेरी गरीब हिंदी में इतना दम आ गया कि उसे देख अंग्रेज रोने लगे हैं। लेकिन कुछ  रंज भी महसूस हुआ- मेरी हिंदी को देसी अंग्रेज ठोके जा रहा है और उसे कोई रोक तक नहीं रहा।

हिंदी का हूं। हिंदी की खाता हूं। हिंदी की गाता हूं। हिंदी को कोई ठोकता है, तो सच कहूं, बहुत दुख होता है। जब हिंदी किसी पर हाथ नहीं उठाती, तो उसे कोई क्यों ठोके? कुछ नरमदली देसी अंग्रेज कहने लगे कि ठीक है, हिंदी बहुत अच्छी है, लेकिन जबर्दस्ती थोपिएगा, तो विरोध होगा और देश टूट जाएगा। 

किसी अनाथ और बेसहारा की तरह हिंदी एक सप्ताह सरेआम पिटती रही। साल में एकाध बार जब देखो तब, वे हिंदी के कान के नीचे दो-चार लगाए बिना नहीं मानते। अब तो वे उसे देश के लिए ‘खतरा’ मानने लगे हैं। हिंदी खतरा तो है, लेकिन देश के लिए न होकर अंग्रेजी के लिए जरूर है। इंग्लैंड में अंग्रेज बहादुर कहता है कि यूके में तब घुसेगा, जब अंग्रेजी का ये इम्तिहान पास कर लेगा। हम हिंदी वाले अंग्रेज बहादुर से एक बार नहीं कहते कि इधर तब आएगा, जब हिंदी का ये इम्तिहान पास कर लेगा। हिंदी ऐसे इंपीरियल मिजाज की नहीं है कि किसी से कहे कि पहले पढ़, फिर आना। और वही हिंदी देश के लिए खतरा बताई जा रही है?

कारण सिर्फ इतना है कि राजभाषा समिति की नई सिफारिशें कहती हैं कि महामहिम पदों पर आसीन व्यक्तियों को अगर हिंदी आती है, तो उनको हिंदी में भाषण देना चाहिए, गैर हिंदीभाषी राज्यों में सड़क-चिह्नों को स्थानीय भाषा, अंग्रेजी और हिंदी में भी लिखा होना चाहिए आदि-आदि। और ये सब तीन भाषा फॉर्मूला के अनुसार प्रार्थना है, आदेश नहीं।

तमिल के कुछ भाई भी इसी लाइन में लग गए। तमिलनाडु बंद का आवाहान किया, लेकिन यह क्या? वह इस बार टांय-टांय फिस्स हो गया। जाहिर है, तमिल जनता ने हिंदी को खतरा नहीं माना। मुझे खुशी हुई कि तमिल जनता को गलत तरह से हिंदी विरोधी की तरह पेश किया जाता रहा है, वह हिंदी विरोधी नहीं है।

फिर सोचने लगा कि यार, पूरे देश को एक रखने की जिम्मेदारी हिंदी की ही क्यों है? अंग्रेज तो चाहता है कि हिंदी खत्म हो जाए , मगर खत्म हो कैसे? 60-70 करोड़ देशवासियों द्वारा बोली-बरती जाने वाली भाषा किसी दूसरे की जिद पर अपनी जान क्यों दे? आगे लिमिटेड  क्यों करे? लिमिटेड कर लिया, तो यह बाहुबली वाला छह दिन में साढ़े सात सौ करोड़ कहां से कमाएगा? कहां से रजनीकांत की कबाली   हिंदी में आकर करोड़ों कमाएगी? हिंदी का बाजार चाहिए, लेकिन हिंदी नहीं चाहिए। हिंदी की जेब चाहिए, लेकिन कोई हिंदी बोले या लिखे, तो देश के लिए खतरा। यह क्या बात है सर जी?
चलिए, इस सबसे तो अपनी हिंदी निपटती रहेगी, लेकिन एक कसक रह गई। मेरी हिंदी पिटती रही और एक भी हिंदी वाले ने उसका पक्ष नहीं लिया। इसी दिल्ली में हिंदी के दो-दो ज्ञानपीठी अभी जिंदा हैं, आधा दर्जन अकादेमी वाले हैं, लेकिन हिंदी के लिए किसी के पास एक लाइन तक नहीं है। 

ये कैसे हिंदी वाले हैं कि हिंदी की खाते हैं, लेकिन हिंदी के पक्ष में एक लाइन नहीं गाते? मेरे इस दुख की दवा करे कोई।

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