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हम जिस एर्दोआन का स्वागत करेंगे

वह 2011 की शरद ऋतु थी, जब मैं रिजेप तैयिप एर्दोआन से पहली बार मिला था। वह मध्य-पूर्व (भारत से पश्चिम एशिया) का कामयाब दौरा करके न्यूयॉर्क पहुंचे थे। उस वक्त अरब-क्रांति अपने शबाब पर थी, और...

हम जिस एर्दोआन का स्वागत करेंगे
बॉबी घोष प्रधान संपादक, हिन्दुस्तान टाइम्सMon, 24 Apr 2017 07:40 PM
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वह 2011 की शरद ऋतु थी, जब मैं रिजेप तैयिप एर्दोआन से पहली बार मिला था। वह मध्य-पूर्व (भारत से पश्चिम एशिया) का कामयाब दौरा करके न्यूयॉर्क पहुंचे थे। उस वक्त अरब-क्रांति अपने शबाब पर थी, और ट्यूनीशिया, लीबिया व मिस्र आदि मुल्कों में तुर्की के प्रधानमंत्री (एर्दोआन तब इसी ओहदे पर थे) को एक रॉक स्टार के रूप में देखा जाता था। अरब के नौजवान एर्दोआन में एक सच्चे जम्हूरी रहनुमा का अक्स देखते थे। और एर्दोआन इन मुल्कों के संभावित नेताओं की तलाश में थे, ताकि वह उन्हें नसीहत दे सकें। एर्दोआन ने उस वक्त मुझे बताया था- ‘अपनी बैठकों में मैंने उनसे कहा... तुर्की लोकतंत्र का मॉडल देश है। यह एक सेक्युलर, सामाजिक सरोकार वाला मुल्क है, जिसमें कानून का राज चलता है। हम इरादतन उनको कोई हुकूमत निर्यात करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं, मगर यदि वे हमसे मदद चाहेंगे, तो हम उनकी भरपूर मदद करेंगे’।


अपने मुल्क में भी एर्दोआन का सितारा तब बुलंदी पर था: तुर्की की अर्थव्यवस्था छलांगें मार रही थी, उनकी एके पार्टी अपराजेय दिखती थी, और इजरायल से रिश्ता तोड़ने के उनके फैसले को अवाम में गजब की लोकप्रियता मिली थी। दरअसल, मावी मरमारा वारदात में इजराजल के कमांडो ने गजा जा रहे एक शांति बेड़े पर हमला करके कई तुर्क कार्यकर्ताओं को मार गिराया था। उस समय तुर्की के अनेक लोगों की निगाहों में एर्दोआन का कद कमाल अतातुर्क जैसा हो गया था।  

लेकिन इस महीने के अंतिम दिनों में जब राष्ट्रपति एर्दोआन (अब वह इसी पद पर हैं) नई दिल्ली आएंगे, तब उनकी चमक उस एर्दोआन के मुकाबले कुछ फीकी जरूर पड़ चुकी होगी, जिनसे मैं न्यूयॉर्क में मिला था। अपने मुल्क में एक निजी राजनीतिक जीत हासिल करने के बाद यह उनकी पहली विदेश यात्रा होगी। दरअसल, तुर्की में हुए हालिया जनमत-संग्रह ने बतौर राष्ट्रपति उनके अधिकारों में बेशुमार बढ़ोतरी के पक्ष में अपनी राय दी है। लेकिन इसकी काफी बड़ी सियासी कीमत तुर्की ने और खुद एर्दोआन ने चुकाई है। वह जितने बड़े समर्थन की उम्मीदें पाले हुए थे, उसके मुकाबले जनमत-संग्रह का फैसला बेहद करीबी रहा: 51.5 फीसदी लोग जहां एर्दोआन के साथ खड़े हुए, तो वहीं उनके विरोध में 48.5 प्रतिशत वोट पड़े। और फिर यह करीबी जीत भी बेदाग नहीं है। वोटों से छेड़छाड़ की शिकायतें मिल रही हैं। सदर एर्दोआन राहत महसूस कर सकते हैं कि मुल्क के संचालन में बुनियादी फेरबदल के लिए उन्हें अब दो-तिहाई बहुमत की दरकार नहीं होगी, मगर उन पर तीन फीसदी के अंतर वाले जनादेश का दबाव जरूर तारी रहेगा।

बहरहाल, तुर्की के जनमत-संग्रह का नतीजा इसलिए भी शर्मनाक है कि एर्दोआन पिछले दो साल से लगातार सियासी मैदान को अपने पक्ष में झुकाने में जुटे हुए थे, इसके लिए उन्होंने न सिर्फ विपक्ष को हाशिये पर डालने की कोशिश की, बल्कि प्रेस की आजादी का भी दमन किया। सौ से भी ज्यादा मीडिया कंपनियों पर वहां ताले लटक गए और ‘कमिटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के मुताबिक, तुर्की की जेलों में इस वक्त 81 पत्रकार कैद हैं, जो कि दुनिया में किसी एक मुल्क में सबसे ज्यादा हैं। इस लिहाज से दूसरे नंबर का देश चीन भी तुर्की से काफी पीछे है। उसकी जेलों में 38 पत्रकार बंद हैं। यह हर हाल में एक शर्मनाक स्थिति है, लेकिन तुर्की के लिए और ज्यादा इसलिए कि वह एक जम्हूरी मुल्क है। 

एर्दोआन के रिकॉर्ड पर जो अगला धब्बा हमें दिखता है, वह है उनके द्वारा लोकतांत्रिक संस्थाओं को महत्वहीन बनाया जाना। वैसे तो यह काम पिछली जुलाई में उनके तख्तापलट की नाकाम कोशिश के पहले से ही जारी था, मगर आपातकालीन अधिकारों के तहत उन्होंने इसे और तेजी से किया। उन्होंने न सिर्फ फौज का शुद्धिकरण किया, बल्कि शिक्षण संस्थाओं, पुलिस, न्यायपालिका व नौकरशाही से लाखों लोगों को चुन-चुनकर बाहर का रास्ता दिखाया, या सलाखों के पीछे भेजा।  
ये सारी चीजें इस हकीकत को देखते हुए बेहद चिंताजनक हैं कि तुर्की दो मोर्चों पर जंग लड़ रहा है: एक, सीरिया से लगी सरहद पर और दूसरा, देश के भीतरी कुर्द इलाकों में। और अब तो इस बात के सुबूत बढ़ रहे हैं कि आईएस ने तुर्की की धरती पर अपनी जड़ें उगा ली हैं। साल 2013 में एर्दोआन ने सेक्युलर नौजवानों के विरोध प्रदर्शनों को तो कुचल दिया, मगर कट्टरपंथ के प्रति तुर्कों व कुर्दों के बढ़ते झुकाव को थामने में वह नाकाम रहे।


देश के बाहर एर्दोआन का सितारा अब ढलान की ओर है। यूरोप के साथ पिछले कुछ हफ्ते में रिश्तों में तेजी से गिरावट आई है। पिछले दिनों एर्दोआन हॉलैंड और जर्मनी की सरकारों के खिलाफ बुरी तरह उबल पड़े थे और उन्होंने इन देशों पर ‘नाजी रवैया’ अख्तियार करने का आरोप जड़ा था। इसके पीछे वजह यह थी कि इन दोनों देशों ने अपने मुल्क के कानून के तहत एर्दोआन के मंत्रियों को अपने यहां रह रहे तुर्कों के बीच वोट के लिए प्रचार करने से रोक दिया था। जाहिर है, जिस तल्ख जुबान में तुर्की के सदर ने इनकी आलोचना की, उससे यही लगता है कि वह जनमत-संग्रह में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं थे।  

मध्य-पूर्व के मंच पर एर्दोआन का जो विशाल कद कभी हुआ करता था, अब वह नहीं रहा। हालांकि इजरायल के साथ उसके तनावपूर्ण रिश्तों में थोड़ी मुलायमियत आई है, मगर अपनी सरहद से लगे अरब मुल्कों में तुर्की की दोहरी नीति ने अरब देशों में उसकी बड़ी भूमिका के दावों की कलई खोल दी है। एर्दोआन सीरिया के सदर बशर अल-असद को कभी अपनी पनाह में आए व्यक्ति के तौर पर देखते थे, आज वह सीरियाई तानाशाह को सत्ता से बेदखल होते देखना चाहते हैं। मगर उनका कोई खास प्रभाव नहीं दिख सका। 

वह दौर बीत गया, जब एर्दोआन अरब के नौजवानों के हीरो हुआ करते थे, अब उनकी नजरों में वह एक तानाशाह ही हैं, जो उनके अपने मुल्क के निरंकुश शासक की तरह हैं। इसलिए जो एर्दोआन नई दिल्ली आ रहे हैं, वह भले ही जनमत-संग्रह के विजेता हों, मगर अपने लोकतांत्रिक देश की अपेक्षाओं की कसौटी पर तुर्की के राष्ट्रपति एक विफल राजनेता हैं।

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