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वक्त लेने और वक्त लगने में असरहीन बना सिनेमा

बीते सप्ताह दर्शकों के सामने वह फिल्म आई, जिसे बनने में लगभग चार साल से अधिक समय व्यतीत हो गया। अपनी जिजीविषा से कैंसर जैसी भयावह बीमारी से जूझकर बाहर निकल आए अनुराग बासु के सामने फिल्म के नायक और...

वक्त लेने और वक्त लगने में असरहीन बना सिनेमा
सुनील मिश्र, फिल्म समीक्षकSun, 23 Jul 2017 09:37 PM
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बीते सप्ताह दर्शकों के सामने वह फिल्म आई, जिसे बनने में लगभग चार साल से अधिक समय व्यतीत हो गया। अपनी जिजीविषा से कैंसर जैसी भयावह बीमारी से जूझकर बाहर निकल आए अनुराग बासु के सामने फिल्म के नायक और उनके रूमानी रिश्तों के बनने व टूटने के कारणों ने ऐसी मुश्किलें खड़ी कीं, जो इससे पहले उनके सामने कभी नहीं आई थीं। यह तब हुआ, जब नायक ही फिल्म के निर्माण में भागीदार था। नायक-नायिका के बीच सबसे ज्यादा चर्चित रिश्ता इन्हीं चार साल की अवधि में बना और समाप्त भी हुआ। ऐसे समय में, जब नायक और नायिका, दोनों को एक अच्छी और सफल फिल्म की जरूरत थी, फिल्म का ज्योतिष ऐसा गड़बड़ा गया कि जग्गा जासूस  न उगलने की रही और न निगलने की। उत्तरार्द्ध में तो यह भी हो गया था कि निर्देशक से लेकर कलाकार तक जैसे-तैसे इस फिल्म को पूरा कर गंगा नहाना चाहते थे। प्रदर्शित होने के बाद आलोचकों ने भी इसे पैसेंजर ट्रेन समझकर आकलन किया और एक सहज ग्राह्य मनोरंजन-प्रधान फिल्म के मूल-तत्व को चर्चा में उपेक्षित कर दिया। दर्शक का भी प्रतिसाद रणबीर और कैटरीना की इस फिल्म को न मिल सका।

सिनेमा में ऐसे उदाहरण बहुतेरे रहे हैं, जब फिल्में अच्छी-खासी बननी शुरू हुईं और अचानक उनकी गति-प्रगति पर ग्रहण लग गया। उनकी रफ्तार प्रभावित हुई और जिस ऊर्जा के साथ फिल्म सोची गई थी, पूरी होते-होते वह फिल्म में थकी हुई लगन का क्षीण-सा प्रतिबिंब नजर आने लगी। इतिहास में वे उदाहरण अलग हैं, जब यादगार और अविस्मरणीय फिल्में अच्छा-खासा वक्त लेकर बनीं, लेकिन उनकी सफलता ने उस सारे परिश्रम का वह परिणाम दिया कि बनाने वालों की पीढ़ियां तक न कुछ करें, तब भी आनंद में रहेंगी। ऐसी फिल्मों में हम के आसिफ की मुगले आजम, कमाल अमरोही की पाकीजा  और रमेश सिप्पी की शोले  का जिक्र करते हैं। पहली फिल्म दस साल से अधिक समय लेकर बनी, लेकिन शुरू से लेकर अंत तक फिल्म देखते हुए यह लगा ही नहीं कि एक दशक में कलाकारों के चेहरे पर या व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन आया है। इसी तरह पाकीजा  को बनने में करीब 12 साल लग गए। और अंत में जो फिल्म सामने आई, उसने इतिहास ही लिख दिया। मुगले आजम  की तरह ही इसे भी ‘कल्ट फिल्म’ का दर्जा दिया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि फिल्म बनाने की बात जब सोची गई, तो इसके निर्माता, निर्देशक और लेखक कमाल अमरोही और फिल्म की नायिका मीना कुमारी पति-पत्नी थे। लेकिन यह फिल्म अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि दोनों में तलाक हो गया। और जो फिल्म सामने आई, उसमें रिश्तों की इस धूप-छांव का जरा भी साया नहीं था।

चार साल में बनी शोले ने उतना ही समय लिया,  जितना जग्गा जासूस  ने। रमेश सिप्पी कर्नाटक के जंगल में रामगढ़ बसाकर सारे कलाकारों को अधिक से अधिक समय के लिए वहीं रखे रहे, लेकिन हिंदी सिनेमा में वह ऐसे उदाहरण वाली फिल्म बनकर याद की जाती है, जो लोगों को रटी हुई है। अगर वास्तव में सिनेमा बनाते हुए कोई ऐतिहासिक बीड़ा उठाया गया हो, जिसमें तमाम शोध किए जा रहे हों, एक-एक बात पर सटीक व सधा हुआ काम किया जा रहा हो, उत्कृष्टता के स्तर पर कोई समझौता न किया जा रहा हो, तब उसमें वक्त लगे, तो बात जायज हो जाती है। इसका एक ही बड़ा उदाहरण रिचर्ड एटिनबरो की फिल्म गांधी  है, जिसकी परिकल्पना से प्रदर्शन तक का समय लगभग 20 साल का माना जाता है। यह अपने आप में एक मापदंड, एक इतिहास है, जो न तो दोहराया जा सका है और न ही जिसका दोहराया जाना आसान होगा। इसके पटकथाकार जॉन बैले ने संपूर्ण गांधी वांग्मय  का अध्ययन कर पटकथा तैयार की थी।

ऐसे यशस्वी उदाहरणों को याद करते हुए हम एक बार फिर आज पर आते हैं, तो यही लगता है कि वे सितारे भी मौलिकता और रचनात्मकता की परिभाषा नहीं समझते या नहीं समझना चाहते, जिनका समय प्रतिकूल चल रहा है या जिन्हें लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर खुद को दर्शकों के सामने साबित करने की आवश्यकता है। अपने बनते-बिगड़ते रिश्तों या उनकी अफवाहों के बीच भी कैसी कृति दी जा सकती है, यह उन्हें पाकीजा  से सीखना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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