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आज भी महत्वपूर्ण हैं ‘भारत छोड़ो’ के वे मूल्य

भारत की आजादी और अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए पहली जनक्रांति 1857 में हुई थी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के वर्षों बाद उसमें लोकमान्य तिलक का प्रवेश हुआ। इस बीच देश में जनअसंतोष आकार लेने...

आज भी महत्वपूर्ण हैं ‘भारत छोड़ो’ के वे मूल्य
राजेंद्र चौधरी, पूर्व मंत्री व सपा नेताTue, 08 Aug 2017 11:18 PM
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भारत की आजादी और अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए पहली जनक्रांति 1857 में हुई थी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के वर्षों बाद उसमें लोकमान्य तिलक का प्रवेश हुआ। इस बीच देश में जनअसंतोष आकार लेने लगा था। गांधी जी के असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह ने लाखों लोगों को आकर्षित किया। वह पहले ऐसे नेता थे, जिनकी भारत के किसानों, गरीबों ,वंचितों सहित समाज के हर वर्ग में पैठ बनी। अपने लंबे राजनीतिक संघर्ष से गांधी जी जनता के उत्साह,  विशेषकर नौजवानों को आजादी के अंतिम संघर्ष के लिए तैयार करने में सफल हुए। भारत छोड़ो आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम की निर्णायक लड़ाई थी। क्रिप्स मिशन की विफलता से भारत में क्षोभ था। दूसरे महायुद्ध में जापान प्रारंभिक तौर पर अंग्रेजों पर भारी पड़ रहा था। गांधी जी ने 5 जुलाई, 1942 को ‘हरिजन’ पत्र में लिखा ‘अंग्रेजों भारत को जापान के लिए मत छोड़ो, बल्कि भारतीयों के लिए भारत को व्यवस्थित रूप से छोड़ जाओ।’

जुलाई 1942 मेें बंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में निर्णय हुआ कि भारत अपनी सुरक्षा खुद करेगा। अंग्रेज भारत छोड़ें, अन्यथा उनके खिलाफ सिविल नाफरमानी आंदोलन किया जाएगा। बंबई के ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक में कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी जी का ऐतिहासिक ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव 8 अगस्त 1942 को मंजूर हुआ। इसी प्रस्ताव पर अपने भाषण में गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का मंत्र दिया था। 9 अगस्त 1942 की तड़के ही धरपकड़ शुरू हुई और कांग्रेस के सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो गए। देश में भूचाल सा आ गया। जिसको जैसे सूझा उसने अपने ढंग से अंग्रेजी राज की मुखालफत शुरू कर दी। उत्तर प्रदेश के बलिया व बस्ती में तो अस्थायी सरकारें तक स्थापित हो गईं। कांग्रेस के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के बाद समाजवादी विचारधारा वाले जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अरुणा आसिफ अली आदि ने आंदोलन की कमान संभाली। देश में एक स्वत: स्फूर्त आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। अंग्रेज समझ गए थे कि उनके भारत छोड़ने में अब और देरी नहीं है। इसलिए जाते-जाते उन्होंने भारत विभाजन का षड्यंत्र रच दिया।

आजादी के बाद जिनके हाथ देश का नेतृत्व आया, उन्होंने उन मूल्यों व आदर्शों को ही परे रख दिया, जिनके आधार पर गांधीजी ने नए भारत का सपना देखा था। देश में गरीबी, बीमारी, भूख, अशिक्षा की लड़ाई मंद पड़ गई। गैर बराबरी का दैत्य भारी पड़ने लगा। जाति-संप्रदाय की राजनीति ने समाज को बांटने और सद्भाव की भावना को धूमिल कर दिया। आजादी के साथ ही समाजवादी विचारधारा वाले जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव सरीखे नेतृत्वकारी प्रबुद्ध युवा, जो विचारधारा के आधार पर राजनीति चलाने का मन बना चुके थे, आगे आए और आंदोलन की कमान सम्हाली।

गांधीजी की अगुवाई में स्वतंत्रता आंदोलन में कई मूल्य एवं आदर्श स्थापित हुए थे। वे सिद्धांतहीन राजनीति को सामाजिक पाप मानते थे। उनका मानना था कि राजनीति सेवा का माध्यम है। वे साध्य और साधन की पवित्रता पर बल देते थे। नैतिक मूल्यों के प्रति उनका आग्रह था। वे मानते थे कि किसी भी कार्य-योजना के केंद्र में समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को रखा जाना चाहिए। भारत के संविधान में ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के माध्यम से व्यक्ति की गरिमा को जाति-धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर सम्मान दिया गया। 

आज दो तरह की विचारधाराओं में टकराव है। एक तरफ लोकतंत्र है, तो दूसरी तरफ अपने को सर्वोपरि दिखाने की सत्ता-लिप्सा। ऐसे में तय करना है कि हमें किधर जाना है? मूल अधिकार उस समाज और व्यक्ति द्वारा प्रयोग किए जा सकते हैं, जो कानून के प्रति आदर रखते हैं, जो जिम्मेदारी तथा नियंत्रण के सम्यक व्यवहार के लिए तैयार हों। लेकिन जब कोई एक समूह या दल राज्य को कैद करने के उद्देश्य से संगठित होता है या इसे    अपना लक्ष्य बना लेता है, तो किसी समाज के लिए इनका सामना करना बिना किसी अहिंसक प्रतिरोध के संभव नहीं हो सकता है। हम लोकतंत्र की परिधि में रहकर ही संविधान के मूल उद्देश्यों को बचा सकते हैं। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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