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Hindi News ओपिनियन नजरियापाबंदियों के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी

पाबंदियों के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी

‘मान-मर्यादाएं टूट रही हैं। इसलिए हमने गांव में लड़कियों के मोबाइल रखने और चुस्त कपड़े पहनने पर रोक लगाई है। यह बिरादरी के प्रमुख लोगों का निर्णय है।’ यह वक्तव्य धौलपुर (राजस्थान) के...

पाबंदियों के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी
ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्रीWed, 19 Jul 2017 10:27 PM
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‘मान-मर्यादाएं टूट रही हैं। इसलिए हमने गांव में लड़कियों के मोबाइल रखने और चुस्त कपड़े पहनने पर रोक लगाई है। यह बिरादरी के प्रमुख लोगों का निर्णय है।’ यह वक्तव्य धौलपुर (राजस्थान) के बल्दियापुर गांव के उन लोगों का है, जिन्होंने गांव की बेटियों के मोबाइल फोन रखने और जीन्स पहनने पर प्रतिबंध लगाया था। हाल में घटित यह वाकया कोई नई बात नहीं है। चाहे अलीगढ़ जिले के फतहगढ़ी गांव का नवंबर 2016 का फैसला हो, या फिर अप्रैल 2016 का बागपत जिले के एक गांव में बेटियों के जीन्स पहनने पर पूरे परिवार के सामाजिक बहिष्कार का मामला, यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। लेकिन इस बार बल्दियापुर में पंचों के निर्णय के विरुद्ध जो कुछ हुआ, वह स्वागत के योग्य है। 

गांव की लड़कियां पंचों के इस फैसले के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने न सिर्फ जीन्स पहनकर गईं, बल्कि उनमें शामिल मनीषा नाम की लड़की ने सवाल भी किया कि ‘हमारे गांव में पांचवीं से आगे स्कूल नहीं, अस्पताल नहीं, उन पर किसी पंच का ध्यान नहीं जाता, हमारे पहनावे और रहन-सहन को ही निशाना क्यों बनाया जाता है?’ बल्दियापुर की मनीषा का यह साहस राहत लेकर आया है। आमतौर पर इन घटनाओं को अशिक्षित समाज की सोच ठहराकर नजरअंदाज कर दिया जाता है। मगर केरल के एक पादरी के अल्फाज पर जरा गौर कीजिए, ‘जो लड़कियां जीन्स, टी-शर्ट पहनकर युवकों को वासना के लिए उकसाती हैं, उन्हें तो सागर में डुबा दिया जाना चाहिए।’ ये शब्द इस भ्रम को तोड़ देते हैं, जो स्त्री के प्रति दकियानूसी सोच को सिर्फ ग्रामीण या कस्बाईर् सोच का हिस्सा मानते हैं। सच तो यही है कि स्त्री के बारे में ‘देह’ से परे सोचने की मानसिकता आज भी गायब है। 

अगर हम भारतीय मानस की बात करें, तो स्त्री या तो परदे में रखने वाली कोई चीज है या फिर घर की चारदीवारी के बाहर उसकी पहचान उसकी ‘देह’ से है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी स्त्री के व्यक्तित्व और चरित्र का आकलन उसके कपड़ों व पहनावे से किया जाए और उसकी स्वतंत्रता को ‘स्वच्छंदता’ कहा जाए। लेकिन इन पाबंदियों के एलान से जुड़ा एक मूलभूत प्रश्न यह उठता है कि क्यों एक स्त्री अपने ऊपर लादे गए हर बंधन को मौन स्वीकृति देती चली जाती है? क्या इन पाबंदियों का विरोध करने पर सामाजिक प्रताड़ना का भय होता है या इससे परे भी कुछ और है, जो हमें पता नहीं चलता है? एक व्यक्ति के जीवन-निर्माण की प्रक्रिया उसके जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है। इसे ‘सामाजीकरण’ कहा जाता है। सामाजीकरण की यह पूरी प्रक्रिया हाड़-मांस के शरीर को ‘व्यक्तित्व’ प्रदान करती है। जहां तक लड़कियों के सामाजीकरण का प्रश्न है, तो इसमें बड़ी ही चतुराई बरती जाती है। अगर इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाए, तो प्रतीत होता है कि स्त्री के बचपन से ही उसके ईद-गिर्द उसकी दैवीय, दिव्य या अमूल्य छवि का ऐसा भ्रामक जाल बुना जाता है, जिसमें वह स्वयं उलझती चली जाती है और यह जान ही नहीं पाती कि इस भ्रमजाल के बाहर भी कोई यथार्थ है। वह सम्मोहित होकर स्वयं को उसी के अनुरूप ढाल लेती है, जिसकी अपेक्षा हमेशा से पितृसत्तात्मक समाज करता आया है। इस तथ्य को पुष्ट करती सोशल मीडिया में छाई एक छोटी कहानी एक सटीक उदाहरण है। 

इस कथा में एक बच्ची महात्मा से शिकायत करती है कि उसके घर से बाहर आने-जाने पर घर वालों द्वारा रोका-टोका जाता है, परंतु उसके भाई के साथ ऐसा नहीं किया जाता। महात्मा उसे समझाते हुए कहते हैं कि ‘लड़कियां चूंकि हीरे जैसी अनमोल हैं, इसलिए सबकी नजर से छिपाकर उसे घर में रखने की जरूरत होती है, वहीं लड़के लोहे जैसे होते हैं, जो कहीं बिखरे रहें, फर्क नहीं पड़ता।’

शब्दों का यह मायाजाल इतना आकर्षक है कि एक छोटी-सी बच्ची स्वयं ही अपने लिए घर की चारदीवारी चुन लेती है। मगर क्या यह उचित है? संभव है कि मनीषा का साहस देश की दूसरी बेटियों को भी अपने विरुद्ध हो रहे अपमानजनक निर्णयों से लड़ने को प्रेरित करे, पर क्या यह जरूरी नहीं कि ऐसी पाबंदियों के विरुद्ध सत्तासीन लोग खड़े हों? यह प्रश्न इसलिए भी उठता है कि बल्दियापुर की विधायक, जो स्वयं एक स्त्री हैं, इस पूरे मामले में खामोशी ओढ़े बैठी रहीं। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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