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मूंछ की लड़ाई में बेवजह उलझी एक बिसात

राज्यसभा की एक सीट हालांकि भाजपा या कांग्रेस जैसे बड़े दलों के लिए खास मायने नहीं रखती, लेकिन गुजरात चुनाव में महज एक सीट के लिए जो घमासान पिछले कई दिनों से छिड़ा था और मंगलवार आधी रात को हाई वोल्टेज...

मूंछ की लड़ाई में बेवजह उलझी एक बिसात
मदन जैड़ा, ब्यूरो चीफ, हिन्दुस्तानThu, 10 Aug 2017 12:30 AM
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राज्यसभा की एक सीट हालांकि भाजपा या कांग्रेस जैसे बड़े दलों के लिए खास मायने नहीं रखती, लेकिन गुजरात चुनाव में महज एक सीट के लिए जो घमासान पिछले कई दिनों से छिड़ा था और मंगलवार आधी रात को हाई वोल्टेज ड्रामे के साथ खत्म हुआ, वह सिर्फ एक सीट का चुनाव नहीं था। बल्कि यह दो बड़े दलों के शीर्ष नेताओं की मूंछों की लड़ाई के रूप में तब्दील हो गया था। हार-जीत को लेकर देर रात तक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, पीयूष गोयल आदि चुनाव आयोग पहुंचे। दूसरी तरफ, कांग्रेस की तरफ से पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम, वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा जैसे नेता भी पहुंचे। दोनों दलों ने किस हद तक इस चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि दोनों दलों के बड़े नेता एक नहीं, बल्कि तीन-तीन बार चुनाव आयोग पहुंचे और दिन भर से चल रहे इस सियासी ड्रामे को देर रात तक चरम पर पहुंचा दिया। राज्यसभा चुनाव या किसी और चुनाव में किसी दल के शीर्ष नेता व मंत्री देर रात चुनाव आयोग पहुंचे हों या ऐसा कोई वाकया पहले कभी हुआ हो, यह याद नहीं पड़ता। इस चुनाव को दोनों दलों ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया था और कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था। भाजपा यह मानने को तैयार नहीं थी कि अमित शाह की रणनीति फेल हो सकती है। कांग्रेस अपने विधायकों की पहरेदारी से लेकर उनके वोट पर पैनी नजर रखे हुई थी, इसलिए भाजपा के हर कदम पर उसकी नजर थी। इसी के चलते वह अपने बागी विधायकों की गलती को पकड़ने में भी कामयाब रही।

चुनाव आयोग में पहले कांग्रेस ने ही दस्तक दी और भाजपा ने तुरंत इसके प्रतिवाद के लिए अपने सबसे वरिष्ठ मंत्रियों को लगाया। वे नहीं चाहते थे कि इस मामले में कांग्रेस को चुनाव आयोग से कोई बढ़त मिले। जितनी बार कांग्रेस की तरफ से चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया गया, उतनी ही बार भाजपा भी वहां पहुंची। इसका पटाक्षेप सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की जीत के साथ हुआ। 
कांग्रेस ने उस राज्य में अपनी प्रतिष्ठा बचा ली, जहां चार महीने बाद ही उसे चुनाव मैदान में उतरना है। कांग्रेस यह सीट हार जाती, तो ऐसा लगता कि विधानसभा चुनाव वह लड़ने से पहले ही हार गई है। कांग्रेस के लिए राज्यसभा की सीट का यह चुनाव और जीत के लिए किया गया उसका संघर्ष एक सबक भी है। जिस प्रकार पार्टी को अपने ही विधायकों को एकजुट रखने के लिए उन्हें कई दिनों तक पहरे में रखना पड़ा, और जीत के लिए स्पष्ट मत संख्या होने के बावजूद अंत में वह हारते-हारते जीती, वह आगामी चुनाव के मद्देनजर कोई सकारात्मक संकेत नहीं हैं। यह भी सच है कि इस जीत के पीछे एक कारण यह भी रहा कि पार्टी के राज्य के नेताओं और केंद्र के आला नेताओं में अच्छा तालमेल अंत-अंत तक बना रहा। सवाल यह है कि आखिर क्यों पार्टी अपने ही विधायकों को संभाल नहीं पा रही है?

अहमदाबाद में पार्टी के चुनाव एजेंट ने क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों की जिस चूक को पकड़ा, उसे दिल्ली में पार्टी के सबसे बड़े नेताओं ने तुरंत सक्रिय होकर चुनाव आयोग तक पहुंचा दिया। पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम, वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा आदि ने चुनाव आयोग पहुंचकर पूर्व में राजस्थान, हरियाणा में हुई इस तरह की घटनाओं की दुहाई देकर दोनों विधायकों के मतों को रद्द करने की मांग की। वरना गोवा में जिस प्रकार से सरकार गठन पर केंद्रीय नेतृत्व सोचता रहा और भाजपा सरकार बना ले गई, वह गलती इस बार उसने नहीं होने दी। अब पार्टी को विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद तो करनी चाहिए, किंतु राज्य में वापसी की उम्मीद बांधने के लिए शायद इतना पर्याप्त नहीं है। ऐसा इसलिए भी कि चोट खा चुकी भाजपा और ज्यादा तैयारी के साथ मैदान में आएगी।
गुजरात के इस पूरे घटनाक्रम में भाजपा के लिए भी संदेश छिपा है। राज्यसभा चुनाव की हार ने उसे झटका तो दिया ही है। गुजरात के राज्यसभा चुनाव ने यह भी बताया है कि हर जगह आप जोड़-तोड़ करके जीत नहीं हासिल कर सकते। जोड़-जोड़ को राजनीतिक हालात के मद्देनजर कहीं-कहीं ही जायज ठहराया जा सकता है, हर जगह पर नहीं। 

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