सेक्युलर और रेगुलर का अंतर
ज्ञानी कहते हैं कि भारत विविधताओं और असमानताओं का देश है। मनाली से मद्रास तक रहन-सहन, खान-पान और पोशाक की विविधता यही दर्शाती है। जहां तक असमानता का सवाल है, साबित करने को किसी भी शहर-गांव की तुलना...
ज्ञानी कहते हैं कि भारत विविधताओं और असमानताओं का देश है। मनाली से मद्रास तक रहन-सहन, खान-पान और पोशाक की विविधता यही दर्शाती है। जहां तक असमानता का सवाल है, साबित करने को किसी भी शहर-गांव की तुलना काफी है। शहर में कुछ अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों, तो कुछ बेहद सामान्य लोगों के इलाके हैं। सड़क, बिजली, पानी तक का अंतर है दोनों में। एक में सब है, दूसरे में कुछ नहीं। धैर्यवान आम लोग आज भी इंतजार के मीठे फल को प्रतीक्षारत हैं। हमारे जननायक गच्चा देने के विशेषज्ञ हैं। उस पर वह बेहयाई से जन-कल्याण के ढोल पीटते हैं, एक-दूसरे को इस तर्क से आश्वस्त करकेकि जहां अंगूठे की छाप तक अलग-अलग हैं, भला इंसान कैसे बराबर हों?
ऐसों ने असमानता के नए शाब्दिक खांचे भी ईजाद किए हैं। इनके पाले के नेता सेक्युलर हैं, बाकी रेगुलर। इन्हें भ्रष्ट, जातिवादी, अनैतिक, बकवादी सब होने की छूट है। इसके बाद भी, ये दूसरे से सुपीरियर हैं। इनका दावा है कि किसी भी तराजू पर इनका पलड़ा भारी ही होगा। भ्रष्टाचार हमेशा सदाचार से वजनदार होता है। बोरों में भरे नोट, प्लॉट, बंगले, जेवर से ईमानदारी का क्या मुकाबला? फिर इनके दो-दो धर्म हैं। यह हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई होने के साथ-साथ सेक्युलर धर्म के अनुभवी कलाकार भी हैं। रेगुलर निरीह हैं। वे एक ही धर्म निष्ठा से निभा लें, काफी है। जाहिर है, सेक्युलर वह है, जो सफलता से दो-दो नावों की सवारी में पारंगत हों। कुछ को शंका है कि इनमें हाथी की सिफत है। वे शाकाहारी हैं। वे जब तक घोटाले न चबाएं, पेट नहीं भरता। इनके सेक्युलर दांत सिर्फ असलियत छिपाने के कवच हैं।
एक धर्म के फतवों से ही दुनिया आतंकित है। ऐसे में, ताज्जुब नहीं कि सेक्युलर फतवे की महत्ता दिनोंदिन कम होती जाए। वट वृक्षों के बोन्साई संस्करण कुछ समय तक भले आकर्षक लगें, धीरे-धीरे रोचकता खोने लगती है। कभी-कभी शक होता है कि सेक्युलरिज्म के गमले में जो पनप रही है, वह कहीं बोन्साई नेताओं की नई पीढ़ी तो नहीं, जो पूर्वजों के संघर्षों का मखौल उड़ाने पर आमादा है?