जीएसटी का मूल्यवाद
उन्हें भ्रम है कि सरकार परोपकारी संस्था है। वह उदाहरण देकर समझाते हैं कि फलां स्टेशन की दुर्घटना में उनके परिचित एक लतियल बेटिकट यात्री के प्राण गए, तो उसके परिवार को लाखों की रकम मिली मुआवजे के...
उन्हें भ्रम है कि सरकार परोपकारी संस्था है। वह उदाहरण देकर समझाते हैं कि फलां स्टेशन की दुर्घटना में उनके परिचित एक लतियल बेटिकट यात्री के प्राण गए, तो उसके परिवार को लाखों की रकम मिली मुआवजे के बतौर। ऐसों को जीएसटी से भी उम्मीद है, कीमतें कम होने की। वे शायद मूल्यों की मूल प्रवृत्ति से अंजान हैं, वरना ऐसी खामखयाली कभी न पालते। बाजार के अनुभवी जानते हैं कि अब आदमी में नहीं, मूल्यों में बला की हमदर्दी है। मूल्य बढ़ने हैं पांच सौ से अधिक की कीमत वाले जूतों के, मगर अकारण बढ़ जाएंगे बिना टैक्स की सब्जी, आटे और दाल के।
कुछ का दृष्टिकोण दार्शनिक है। उनकी मान्यता है कि देश एक है, तो बाजार के मूल्य भी एक से क्यों न हों? कोई कन्याकुमारी से कुछ खरीदे या काठगोदाम से, मूूल्यों में अंतर क्यों हो? वह भूलते हैं कि कीमतों की एकरूपता के लिए कितने स्तर के टैक्सों को समाप्त करना पड़ा होगा। टैक्स लगाने का अधिकार यदि राज्य तजेगा, तो केंद्र से आर्थिक क्षतिपूर्ति की अपेक्षा तो करेगा ही। यह राशि अब इसी जीएसटी से वसूली जानी है। उपभोक्ता की नियति ही जेब कटने की है, चाहे देश की सरकार काटे या प्रदेश की।
संसार के लिए भारत के सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सुुधार का भार किसी को तो भुगतना ही है। सरकार मानती है कि यह सौभाग्य मुल्क के मध्य वर्र्ग का है। मध्य वर्ग का प्रश्न है कि सरकारी सुधार के हर प्रहार का शिकार वही क्यों होता है? मगर जीएसटी में शायद ऐसी नाइंसाफी न हो। अर्थशा्त्रिरयों को यकीन हो न हो, मूल्य-वृद्धि के अनौपचारिक दायरे में सब आएंगे। दुकानदारों का विश्वास भेदभाव में न होकर, सब की समान तरक्की में है। यह भविष्य ही बताएगा कि वे मुनाफे की सिद्ध कसौटी पर खरा उतरते हैं या नहीं?
जीएसटी के शुभागमन की घोषणा सरकार ने भारतीय आजादी के अंदाज में की है। दोनों में समानता है। एक में अंग्रेजों की पराधीनता से छुटकारा मिला है, दूसरे में करों की विविधता से। खतरा भी है। एक से परिवारवाद का प्रादुर्भाव हुआ, दूसरे से कहीं मूल्यवाद का न हो?